आहत होता लोकतंत्र

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद से जो कयास लगाए जा रहे थे, वही सही साबित हो रहे हैं। महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने का जो हाई वोल्टेज ड्रामा हुआ था, लगता है अब राज्य उसकी चरम परिणति की ओर बढ़ रहा है। और इस दौरान लोकतंत्र भी बुरी तरह से आहत हो रहा है। हालांकि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए कांग्रेस नेता सुप्रीमकोर्ट में याचिका भी दाखिल किया है, लेकिन कुछ खास होगा ऐसा नहीं लगता। बहरहाल भाजपा व शिवसेना का मिलकर चुनाव लड़ना और चुनाव परिणाम के बाद राहें अलग होना बता गया था कि राज्य को शायद ही स्थिर सरकार मिल पायेगी। हुआ भी वही, शिवसेना का अपने धुर विरोधियों एनसीपी व कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनने में देरी करना और राष्ट्रपति शासन का लगना। उसके बाद एनसीपी के असंतुष्ट धड़े अजित पवार के साथ सरकार बनाने की असफल कोशिश, भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडनवीस का शपथ लेना व बहुमत न जुटा पाने पर इस्तीफा देना महाराष्ट्र की राजनीति के शुरुआती झटके थे। फिर ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग व एनसीबी के अस्त्र प्रयोग हुए। महाविकास अघाड़ी सरकार के दो मंत्री फिलहाल जेल में हैं। भाजपा लगातार मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर हमलावर रही। कोरोना काल के कुप्रबंधन के सवाल उठे और पार्टी के हिंदुत्व लाइन से हटने को भी मुद्दा बनाया गया। शिवसैनिक विधायक भी इस बात से आशंकित रहे हैं कि पार्टी अपने आधारभूत मुद्दे हिंदुत्व से हटकर एनसीपी व कांग्रेस की लाइन पर चल रही है। मगर, महाराष्ट्र की राजनीति में हालिया जलजला शिव सेना के विधायक दल के नेता रहे व ठाकरे सरकार में मंत्री एकनाथ शिंदे के पार्टी के दर्जनों विधायकों के साथ महाराष्ट्र छोड़ने से आया है। पहले शिंदे के साथ विधायक भाजपा शासित गुजरात के सूरत पहुंचे और फिर असम में गुवाहटी। कयास लगाये गये कि अब शिवसेना,एनसीपी व कांग्रेस गठबंधन सरकार अल्पमत में आ गई है। आक्षेप है कि ढाई साल पहले हाथ आई सत्ता गंवाने से तिलमिलायी भाजपा सुनियोजित तरीके से राज्य सरकार को गिराने में लगी थी। हालांकि, फिलहाल भाजपा यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि यह सब शिवसेना के भीतर व्याप्त अंतर्विरोधों के चलते हुआ है। लेकिन पर्दे के पीछे की उसकी भूमिका को सभी महसूस कर रहे हैं। बहरहाल, राजनीतिक पंडितों का एक वर्ग कयास लगा रहा है कि राज्य में गठबंधन सरकार के गिनती के दिन रह गये हैं। दरअसल, इस घटनाक्रम में शिवसेना के बिखराव के बीज भी निहित हैं क्योंकि शिंदे का दावा है कि वे बाला साहब के कट्टर शिवसैनिक हैं। इससे कहीं न कहीं उद्धव ठाकरे के नेतृत्व को ही चुनौती दी जा रही है। पिछले ढाई साल लगातार गठबंधन सरकार पर भ्रष्टाचार, कोविड के दौरान अव्यवस्था व शिवसेना के पार्टी मुद्दे से भटकने आदि को लेकर भाजपा हमलावर रही है। पार्टी कहती रही है कि साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बाद शिवसेना इस वायदे से मुकर गई कि देवेंद्र फडनवीस को मुख्यमंत्री बनाना है। पार्टी शिवसेना पर धोखा देने का आरोप लगाती रही है। बहरहाल, अब भाजपा यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि मौजूदा घटनाक्रम में उसकी कोई भूमिका नहीं है और शिवसेना के भीतर जारी असंतोष से ये हालात बने हैं। लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि यदि भाजपा की कोई भूमिका नहीं है तो बागी विधायकों को भाजपा शासित राज्यों में ही कैसे शरण व सुरक्षा मिल रही है। हालांकि, कैडर आधारित पार्टी शिवसेना में इतने विधायकों का बागी होना चौंकाने वाला जरूर है। दरअसल, इस विद्रोह के संकेत पहले ही मिलने शुरू हो गये थे जब राज्यसभा चुनाव में पर्याप्त मत न होते हुए भी भाजपा के तीन प्रत्याशी राज्यसभा पहुंचे। ऐसे ही हाल के एमएलसी चुनाव में भाजपा के अधिक प्रत्याशियों के जीतने व पर्याप्त मत होते हुए भी कांग्रेस प्रत्याशी के हारने से संकेत साफ थे कि गठबंधन सरकार के भीतर सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है। कयास लगाये जा रहे हैं कि गठबंधन सरकार के खिलाफ भाजपा लंबे समय से सुनियोजित ढंग से काम कर रही थी। पार्टी उस किरकिरी से बचना चाह रही थी जो विधानसभा के चुनाव के बाद एनसीपी के बागियों की मदद से सरकार बनाने की कोशिश में हुई थी।

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