गांवों का रखें ध्यान

जनप्रतिनिधियों द्वारा दावे करना आज की राजनीति का शगल बन चुका है। लेकिन दावों की हकीकत बेहद चिंताजनक है। बातों-बातों में स्कूल को गोद लेने या फिर गांवों को गोद लेने का ऐलान जनप्रतिनिधियों द्वारा किया जाता रहा है। गांव गोद ले लिए जाते हैं, लेकिन हकीकत में उनका वैसा ही विका हो रहा है, इसे हम शत-प्रतिशत नहीं कह सकते। अपने निर्वाचन क्षेत्र के गांवों को गोद लेकर आदर्श गांव बनाने की घोषणाएं जितने बड़े ताम-झाम के साथ की जाती रही हैं, उनके परिणाम उतने ही निराश करने वाले नजर आए हैं। गाहे-बगाहे ऐसे गांवों की हकीकत सामने आती रहती है। यह विडंबना ही है कि माननीयों को यह भी भान नहीं है कि उनके गोद लिये गांव की समस्याएं कौन-कौन सी हैं। दलील दी जा रही है कि जब ग्रामीण समस्याएं बताएंगे तो उनको दूर किया जायेगा। निस्संदेह यह स्थिति हमारे जनप्रतिनिधियों की संवेदनहीनता को ही उजागर करती है। निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि नेताओं की गांवों को गोद लेकर आदर्श गांव बनाने की सोच किसी आदर्श के बजाय महज सस्ती लोकप्रियता पाने का उपक्रम मात्र है। ग्रामीणों की उम्मीदों को जगाकर जमीनी हकीकत बदलने के लिये कुछ न करना निराशा ही पैदा करता है। वैसे तो देश का हर गांव आदर्श होना चाहिए। किसी गांव विशेष को गोद लेना प्राकृतिक न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है। लेकिन यदि इसके बावजूद किसी गांव को आदर्श बनाने के लिये गोद लिया जाता है, तो गांवों में मूलभूत आवश्यकताओं को तो कम से कम पूरा ही किया जाना चाहिए। यह जनप्रतिनिधियों का नैतिक दायित्व भी है कि उनके द्वारा गोद लिये गांव के ग्रामीण खुद को ठगा सा महसूस न करें। इक्कीसवी सदी के भारत में भी कृषि आधारित व्यवस्था का प्रभावी होना गांधी जी की उस टिप्पणी को सार्थक करता है कि जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत की आत्मा गांव में निवास करती है। कोरोना संकट में देशव्यापी कठोर लॉकडाउन के बाद शहरों में काम कर रही जनशक्ति का जिस तरह गांवों की ओर पलायन हुआ, उसने अहसास कराया कि ग्राम्य अर्थव्यवस्था ही संकट मोचक साबित हो सकती है। गांव को क्या चाहिए होता है- महज बिजली, पानी, शिक्षा और पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं आदि। जिनको पूरा करना सरकारों का नैतिक दायित्व भी है। आज शहर पहले से ही जनसंख्या दबाव में हैं। फिर गांवों से रोजगार की तलाश में लोग जब वहां जाते हैं तो नागरिक सुविधाएं चरमराने लगती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि गिने-चुने गांवों को आदर्श बनाने के बजाय हर गांव की सुध ली जाये। ताकि ग्रामीण युवाओं को शहर की ओर पलायन न करना पड़े। उनका जीवन स्तर बेहतर हो सके। रोजगारपरक शिक्षा से उन्हें गांव के आस-पास ही रोजगार के अवसर मिल सकें। कोई भी व्यक्ति अपनी जमीन से नहीं उखड़ना चाहता, बशर्ते उसके गांव के आसपास ही रोजगार की व्यवस्था हो। आज जरूरत गांव केंद्रित अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित करने की है। चूंकि आज भी भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए नीतियां भी गांवों को केंद्रित करके बनाई जानी चाहिए।

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