गांवों की मजबूत होती सामाजिक-आर्थिक स्थिति
प्रो. नंदलाल मिश्रगांव अब पहले जैसे नहीं रहे। नित नए परिवर्तन को अंगीकृत किये वे आगे बढ़ रहे हैं। ग्रामीण विकास अब अपने लक्ष्य की तरफ अग्रसर है।हालांकि ग्रामीण विकास की तस्वीर क्या होनी चाहिए यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। ग्रामीण विकास को स्पष्ट करने के लिए देश में स्थापित कुछ अग्रणी संस्थान बहुत से कार्य किये हैं जिनमें एनआईआरडी हैदराबाद गांधी ग्राम एसआईआरडी महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय यूनिवर्सिटी चित्रकूट इत्यादि प्रमुख हैं, परन्तु गांव इन संस्थानों से निकले निर्देशों को कहां तक आत्मसात कर पाए हैं यह विवेच्य विषय है।
भारत रत्न राष्ट्र ऋषि नाना जी देशमुख गांधी जी के विचारों से प्रेरित होकर अत्यंत निर्धन एवं हर तरह से पिछड़े क्षेत्र चित्रकूट को अपनी कर्मस्थली बनाई। आज यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि जब चित्रकूट का इतिहास लिखा जाएगा तो चित्रकूट दो तरह से याद किया जाएगा।पहला भगवान प्रभु श्रीराम का चित्रकूट और दूसरा नाना जी का चित्रकूट।नाना जी की दृष्टि चित्रकूट के सर्वांगीण विकास पर थी और जो विकास का अभिकल्प उन्होंने तैयार किया आज उसे चित्रकूट के गॉंवों में देखा जा सकता है।
ग्रामोदय विश्वविद्यालय की शुरू से परंपरा रही है कि हर संकाय और विभाग को सप्ताह में दो दिन गांव में कैम्प लगाना होता है जहाँ छात्र ग्रामीण समस्याओं से रूबरू होते हैं तथा उनके समाधान के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।इस दौरान बहुत से गॉंव को देखने का और जानने का अवसर प्राप्त हुआ।
जिन जिन क्षेत्रों में बदलाव देखने को मिला वे बड़े महत्व के हैं। अधिकांश गांवों में मकान के स्वरूप बदल गए हैं। कच्चे मकानों की जगह पक्के मकान दिखाई देते हैं। कहीं-कहीं कुछ झोपड़ियां भी हैं पर उनकी जगह कोई झोपड़ी नहीं बनाता अपितु एक दो कमरों का पक्का मकान या घर बनते चले जा रहे हैं।
जातिगत पेशे गांव से शहरों की तरफ रुख कर रहे हैं। ब्राह्मण अभी भी कर्मकांड के पेशे से जुड़े हैं पर वे कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रहे। ब्राह्मण को धन केवल भिक्षा की कहावत किंवदंती बन चुकी है। वह अपने बुद्धि और कौशल के बल पर शहरी और ग्रमीण दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए हैं। ठाकुर वर्ग भी नौकरी और उद्यमिता के क्षेत्र में अपना झंडा बुलंद किये हुए है।अन्य जातियां जो भूमिहीन और मजदूर वर्ग से आती हैं उन्होंने भी अपना रास्ता बदल लिया है। धोबी छोटे-छोटे शहरों या कस्बों में अपना प्रेस का कारोबार शुरू कर दिया है। बढई लोहार भी शहरों में अपना भविष्य देख रहे हैं। नाउ समाज ने सैलून की दुकान खोल रखी है। कहने का आशय यह है कि पुराने कारोबार अभी भी हैं पर उसका स्वरूप बदल गया है, जो शारीरिक श्रम करने में तनिक भी कमजोर हैं वे कस्बो या शहरों में अपने जीने खाने का रास्ता खोज लिए हैं खोज रहे हैं।
अब गांव के सवर्ण लोग स्वयं से खेती नहीं कर पा रहे हैं। वे सक्षम तो हैं वे ट्रैक्टर ट्यूबवेल हार्वेस्टर थ्रेशर सभी प्रकार के यंत्रों को खरीदकर रखे भी हैं पर स्वयं के पास समय न होने के कारण खेत को बटाई पर दे देते हैं। अब उनके बल पर पलने वाले लोग उनको ही अन्न उपलब्ध करा रहे हैं। जो लोग कभी खेत कट जाने के बाद गिरी हुई बालियों को बीना करते थे और एक एक दाने को जुटाते थे आज वे अन्नदाता बन गए हैं अर्थात उनकी स्थिति पहले की तुलना में काफी अच्छी हो गयी है। साल भर के खर्च के लिए वे अनाज रख लेते हैं तथा जो अधिक बच जाता है उसे बेंचकर घर खर्च चलाते हैं।
समग्र रूप से देखें तो यह बात सामने आएगी की रहन सहन का तरीका, वेशभूषा, खानपान, आय के स्रोत और ग्रामीण अधोसंरचना सब कुछ बदल गया है। यहां तक कि निम्न आय वर्ग के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन आया है। अब किस तरह दो पैसे की आमदनी की जाय बच्चा बच्चा सोचने लगा है। यदि वह पढ़ने में रुचि नहीं रखता तो जत्था बनाकर सूरत, मुम्बई, पूना, दिल्ली, पंजाब इत्यादि शहरों में जाकर मजदूरी करते हुए कोई न कोई हुनर सीख कर आता है जैसे पुताई करना, हैंड पंप बनाना, पुट्ठी लगाना, टाइल्स लगाना, ईंट की जुड़ाई करना। इससे उसके घर की आर्थिक तंगी भी दूर होती है और गांव में भी उसे कोई न कोई काम मिलता रहता है।
सवर्णो में शिक्षा की जागरूकता कुछ अधिक बढ़ गयी है। लोग मात्र अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम शिक्षा देने के लिए गांव छोड़कर छोटे छोटे शहरों की तरफ रुख कर लिए हैं। वहां किराए पर कमरा लेकर या जो सक्षम हैं जमीन खरीदकर रूम बनवाकर वहीं रहकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं। इससे दो बातें हुईं हैं पहली कि अब गांव में आवारा किस्म के लोगों में कमी आ रही है तो दूसरी तरफ टाउन या कस्बो में किसानों की जमीन का अच्छा पैसा मिल जा रहा है। यह प्रगति दो बातों की तरफ इशारा करती है पहला सवर्णो में प्रतिस्पर्धा और श्रम से पलायन तथा निम्न वर्ग के द्वारा सवर्णो की भूमि पर कृषि कार्य।इस तरह सभी की आर्थिक स्थिति में बदलाव तथा सामाजिक संबंधों का व्यापकी करण बढ़ रहा है।
अब आइए सरकारी योजनाओं से इनकी आत्मनिर्भरता में बृद्धि की बात कर लें। मनरेगा, उज्जवला, शौचालय, मकान, राशन तथा जन धन योजना से लाभ, पेंशन एवं स्वास्थ्य योजनाएं सभी इनकी उन्नति में लाभ पहुँचा रहे हैं। इनके बच्चों को मुफ्त की शिक्षा, मिड डे मील, स्कालरशिप तथा नौकरियों में आरक्षण, ड्रेस इत्यादि इनके सामाजिक आर्थिक स्तर को ऊंचा उठा रहे हैं। इनके आत्मविश्वास को चार चांद लगा रहे हैं।
शहरों से गांवों की कनेक्टिविटी, बिजली की उपलब्धता, पीने योग्य पानी की व्यवस्था, आवागमन के प्रचुर संसाधन, हर किलो दो किलोमीटर पर बाजार की उपलब्धता ग्रामीण जीवन को विकास के रास्ते पर आगे ले जा रहे हैं। रही बात आपसी अंतरसंबंधों की तो वह कहानी थोड़ी अलग बात बयां करती है। जिस पर अलग से लेख की गुंजाइश बनती है। पर रोटी कपड़ा और मकान के क्षेत्र में गाँव सशक्त और सुदृढ़ हो रहे हैं। अब गांवों में फालतू लोग कम ही मिलते हैं। हम लोगों का गांव आना जाना लगा रहता है। सो कभी लेबर की जरूरत महसूस होने पर लेबर नहीं मिलते गांव में कृषि और पशुपालन दो ही मुख्य कार्य होते हैं। मजदूरों के अभाव में आप या तो स्वयं मजदूर बनिये या श्रम के कार्य छोड़ दीजिए। इसीलिए बहुत से लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है और उसे आधे पर किसी को दे दिया है। इसका लाभ वे लोग ले रहे हैं जिनके पास श्रम की पूंजी है।
कुल मिलाकर देखा जाय तो गांव की स्थिति उलट रही है। जमींदार या खेतिहर लोग शहरों की तरफ रुख कर रहे हैं और श्रमिक वर्ग गांव का मालिक बन रहा है जिसमें पंचायत का चुनाव अहम रोल निभा रहा है।
- (महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना)
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