- प्रो. नंदलाल मिश्र
किसी भी समाज परिवार, समूह और संस्कृति की गतिशीलता आपसी तालमेल और सामंजस्य पर टिकी होती है। जैसे कपड़े की सुंदरता और मजबूती उसके धागे पर निर्भर करती है उसी तरह समाज और संस्कृति की सशक्तिशीलता उसके अपने सदस्यों पर अवलंबित होती है। वही समाज और संस्कृति आगे बढ़ी है जिसके सदस्य जी जान लगाकर उसके लिए दिन रात कार्य करते हैं। हम अब न्यू इंडिया की बात करने लगे हैं।देश बदल रहा है एक नया भारत बन रहा है। विशेषकर नई अर्थव्यवस्था के लागू होने के बाद। इधर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक से तो इसमें तीब्र परिवर्तन आया है। चतुर्दिक बदलाव हो रहे हैं। हम किसी अनजान रास्ते पर आगे बढ़ गए हैं। हम तेज गति से चल रहे हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि देश के एक बेहद अहम क्षेत्र शिक्षा में पिछले वर्ष आमूल चूल परिवर्तन किया गया। नई शिक्षा नीति अपने सम्पूर्ण रूप में सामने नही है किंतु पुरानी को ढहा दिया गया। इसमें इतनी जल्दी क्या थी। निसंदेह नए की जरूरत समय की मांग थी पर व्यवस्थित तरीके से समस्त तैयारियों के साथ। तैयारी हमने की नहीं और पुराने को हमने मिटा दिया।
इसी तरह अब स्नातक में प्रवेश पाने के लिए विशेषतः केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इसी सत्र से सीयूईटी की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी।अब प्रश्न यह है कि अभी तक छात्र इंटरमीडिएट में अच्छे अंक लाने के लिए परेशान रहते थे क्योंकि दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रवेश टॉप मार्क्स के आधार पर होता था। आज के दिनों में कंपीटिटिव एग्जाम के लिए दिल्ली से अच्छा कोई जगह नहीं है। ऐसे में यदि कोई छात्र जिसको ग्रेजुएशन के साथ साथ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करनी हो उसे जरूरी नहीं है कि क्यूट के जरिये दिल्ली में प्रवेश मिल जाय। संभव है कि उसे अरुणांचल के केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश मिले। ऐसे में वह सिर्फ ग्रेजुएशन ही कर पायेगा कम्पटीशन नहीं कर पायेगा। आखिर इतनी जल्दी क्या है।
मैंने सहयोग और जिम्मेदारी की बात उठायी थी। बढ़ते प्रौद्योगिकी के प्रभाव ने व्यक्ति को व्यक्ति से अलग कर दिया है। लोग अब साथ साथ नहीं चलना चाहते। किसी भी अवसर पर समूह के अधिकांश लोग साथ साथ मिलकर बड़े से बड़ा काम कर लिया करते थे। अब वह सहयोग और लगाव दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। पैसे के बल पर अब सब काम निपटाए जाते हैं। अर्थात पैसे के दम पर कार्य के होने की प्रथा चल पड़ी है। पैसे के बल पर कार्य तो हो जाते हैं मगर वह लगाव, आपसी सद्भाव, प्रेम, सौख्य और संगचारिता समाप्त हो गयी है।
हमे अब वह संस्कृति मिल रही है जो एक नये रूप में हमारे सामने खड़ी की जा रही है। नया भारत बन रहा है जहां सहयोग और परस्पर पूरकता का सर्वथा अभाव है। भूमंडलीकरण हमें विश्व की सुनहरी छटा प्रस्तुत कर रहा है। हम उस छटा में प्रवेश करने को आतुर हैं। क्यों क्योंकि वह हमें जिम्मेदारियों से मुक्त रहना सिखाता है। जब हम जिम्मेदारियों से दूर रहना सीख लेते हैं तो ऐसा महसूस करते हैं कि हर्रै न फिटकरी रंग चोखा।मजे करो। सहयोग छूट गया जिम्मेदारियां रही नहीं सो सिर्फ मौज रही तो मौज करो।
आइए देखें एक उदाहरण से आप इसे आसानी से समझ सकते हैं। आज के बच्चों को जब गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करने की बात अभिभावक सोचता है तो बच्चे कहते हैं कि इतनी जल्दी क्या है। जबकि उसकी उम्र सत्ताईस अठाईस की होती है। इस उम्र में वह कहता है कि इतनी जल्दी क्या है। इतना ही नहीं या तो उसकी कोई गर्लफ्रैंड होती है या वह यह कहते पाया जाता है कि जब तक वह अच्छे तरह से सेटल्ड नहीं हो जाएगा तब तक उसे शादी नहीं करनी। समान विचार लड़कियों का भी होता है। यह है जिम्मेदारियों से भागना। बहुत से लड़के लड़कियां तो शादी करना ही नहीं चाहते। यह सभी परिवारों की स्थिति है। अभिभावक लाचार और परेशान हैं।
आभासी दुनिया ने समाज में एक नई लकीर खींच दी है। किधर जाय क्या करें के अंतर्द्वंद में उलझा व्यक्ति वही करने पर उतारू है जो समाज मे वर्जित है या उसे अच्छे नजरिये से नहीं देखा जाता। यह अनायास नहीं हो रहा है। भूमंडलीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी दोनों ने मिलकर विश्वग्राम की ऐसी गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत कर दी है जिसने गोपनीयता और सामाजिक, पारिवारिक मानकों और मान्यताओं की धज्जियां उड़ा दी हैं।अब सारी वर्जनाएं टूट चुकी हैं। कभी जिस पर हमें गर्व था वह सारी मर्यादाएं तहस नहस हो रही हैं। पुरुष तो पुरुष महिलाओं के लिए शराबालय खुल रहे हैं।
हम अपने संस्कृति पर गर्व करते फूले नहीं समाते। हम विश्व गुरु बनने का सपना भी देख रहे हैं। पर पाश्चात्य देशों की रोजमर्रा की जीवन शैली को अपनाने में अपने संस्कृति की कुर्बानी भी हँस कर दे रहे हैं।अंधानुकरण हमारा स्वभाव बन गया है। हम कैसे अपने को भारतीयता की तरह से आगे ले जा सकते हैं जिस पर हमें गर्व होगा। इस पर चिंता करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार राम सुजान अमर लिखते हैं-
धरती और आकाश को नापता हमारा भूमंडलीकरण का रथ अबाध गति से आगे बढ़ रहा है। कोई चीज इसकी पंहुच से बाहर नहीं है। इसकी सीमा में केवल आर्थिक पहलू ही नहीं आ गए हैं बल्कि भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि को भी इसने अपनी चपेट में ले लिया है। औपनिवेशिक युग की तरह अब पश्चिमी साम्राज्यवाद हमारी सोच को विकृत एवं अस्मिता को विखंडित करके अपना शासन चलाना चाहता है।भूमंडलीकरण के नाम पर जिस विश्व ग्राम की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है, वास्तव में वह पश्चिम की शर्तों पर शेष दुनिया के व्यक्तित्व हरण की धूर्ततापूर्ण साजिश है। इसके तहद एक व्यापक एवं सुचिंतित रण नीति के जरिये हमारी भाषा, साहित्य, कला एवं संस्कृति को भी पश्चिमी बाजार की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिश हो रही है। ताकि अपने आईने से वंचित होकर हम अपने राष्ट्रीय पहचान को भूलकर पश्चिम के भौतिक सांस्कृतिक बाजार से आ रहे कचरे को ही अपनी समृद्धि एवं विकास का प्रमाण मान लें।
भूमंडलीकरण सिर्फ एक आर्थिक प्रक्रिया नहीं है। बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता एवं संस्कृति को गहराई से प्रभावित करने वाला एक भूचाल भी है। पर डर इस बात का है कि पश्चिम अपने मीडिया विस्फोट के सहारे भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार करने में सफल हो चुका है जो पूरी तरह से पश्चिमोन्मुखी है और नकल की जीवन शैली उसके लिए गौरव की बात है। अधिक चिंता की बात यह है कि इस उपभोक्तावादी पश्चिमोन्मुखी वर्ग का तेजी से विस्तार हो रहा है। इसलिए अगर हम सचमुच तेजी से फैल रहे इस सांस्कृतिक भूमंडलीकरण का मुकाबला करना चाहते हैं तो हमे बाजार के उन्माद से बचना होगा।
- महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, सतना (मप्र)
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