श्रीलंका का आर्थिक संकट
हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका अपने इतिहास के सबसे भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वहां पेट्रोल, डीजल जैसा बेहद अहम ईंधन खत्म हो चुका है। बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। जरूरी चीजों के आयात के लिए सरकार के पास पैसे नहीं बचे हैं। इससे लगभग सभी चीजों के दाम लगातार चढ़ते जा रहे हैं। कई लोगों की तो पहुंच से बाहर ही हो चुके हैं। धीरे-धीरे सब ठप हो रहा है। यहां का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। इसी के साथ कर्ज के बोझ से तले इस देश के दिवालिया घोषित होने का खतरा भी पैदा हो गया है। आखिर ऐसा क्या हुआ रावण के देश में, जो श्रीलंका ऐसी मुसीबत में फंसा? जानकारों के मुताबिक श्रीलंका के आर्थिक संकट में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की बेहद अहम भूमिका मानी जा रही है। श्रीलंका ने 1978 में राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनाई। तभी से यह विवादों में है। खास तौर पर सत्ताधारी दल द्वारा सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग और मनमाने फैसलों के कारण। राष्ट्रपति के शासन तंत्र पर नियंत्रण का कोई इंतजाम नहीं है। जो था, उसे भी राष्ट्रपति को कानून से ऊपर मानने वाले कानूनी प्रावधानों के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया। बताया जाता है कि श्रीलंका सरकार ने रेडियो लाइसेंसिंग में भी भारी हेराफेरी की है। रेडियो और टेलीविजन प्रसारण के काम आने वाली फ्रिक्वेंसी के लाइसेंस के लिए आम तौर पर सभी देश ऊंची कीमत वसूलते हैं। इससे सरकारी खजाना भरते हैं। साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि ये लाइसेंस लेने वाले राष्ट्रीय नीति के दायरे में ही अपने चैनलों का संचालन करेंगे। लेकिन श्रीलंका में इस काम में जबरदस्त धांधली हुई है। जैसे चंद्रिका कुमार तुंगा जब राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त हुईं तो एक लाइसेंस उन्हें ही आवंटित हो गया। उन्होंने उसे एक कंपनी को महज 50 लाख डॉलर में बेच दिया। इसी तरह 2005 में महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद 3 लाइसेंस जारी किए। इनमें एक बौद्ध भिक्षु को मिला और बाकी 2 राजनीतिक दलों को। इन्होंने राजपक्षे की जीत सुनिश्चित करने में भूमिका निभाई थी। फिर आगे बौद्ध भिक्षु ने अपना लाइसेंस किसी कंपनी को 4 करोड़ डॉलर में बेच दिया। इन लाइसेंसों का पैसा भी सरकारी कोष के बजाय निजी खातों में गया। श्रीलंका की संसद के सदस्य राष्ट्रपति और उनकी नीतियों का आम तौर पर किसी तरह से प्रतिरोध नहीं करते। बताया जाता है कि बदले में उन्हें राष्ट्रपति शासन से शराब, रेत, खनन आदि के लाइसेंस वगैरह मामूली दामों पर उपलब्ध कराए जाते हैं। एक बात और वह .ह कि श्रीलंका में सरकारी तामझाम पर भारी रकम खर्च होती है। मतलब राष्ट्रपति से लेकर मंत्रियों, नेताओं, अफसरों की गाडि़यां, बंगले, फोन, सुरक्षा आदि पर इतनी रकम खर्च होती है जितनी संभवतः ब्रिटेन जैसे विकसित देश में भी खर्च नहीं की जाती। इससे देश के सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता रहा है। लेकिन राष्ट्रपति शासन ने इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। हालात यह हो गए हैं कि आर्थिक सहयोग  पैकेज लाने की कोशिश की जा रही है। भारत और चीन से भी मदद मांगी जा रही है। लेकिन जब तक श्रीलंका की सरकार आर्थिक नीतियों और तंत्र को कसती नहीं, दुरुस्त नहीं करती, इस पर संशय बना रहेगा कि श्रीलंका आर्थिक संकट से बाहर आ पाएगा या नहीं। ईंधन की किल्लत की वजह से बसें बंद कर दी गई हैं। गैस नहीं मिल रही, इसलिए लोग खाना भी नहीं बना पा रहे। श्रीलंका में ईंधन की कमी की वजह से ज्यादातर बसें बंद कर दी गई हैं। लगभग ढाई करोड़ लोगों के घरों में बिजली आपूर्ति ठप हो गई है। कारखाने और पॉवर प्लांट बंद हो चुके हैं। श्रीलंका की जनता इसके लिए यहां की सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि श्रीलंका के पास देश चलाने के लिए पैसे भी नहीं हैं। कोरोना महामारी, ईंधन की कमी और आसमान छूती महंगाई की वजह से देश संकट से जूझ रहा है। सरकारी खजाना खाली हो चुका है। श्रीलंका को आने वाले कुछ महीनों में घरेलू और विदेशी कर्ज चुकाने के लिए लगभग साढ़े सात अरब डॉलर की जरूरत है। हालांकि श्रीलंका की सरकार के उस दावे को ख़ारिज किया जा रहा है जिसमें कहा गया कि ये विरोध प्रदर्शन राजनीतिक पार्टियों से प्रेरित हैं। बहरहाल श्रीलंका का वर्तमान संकट वहां के नेता लोगों के भ्रष्टाचार, आर्थिक कुप्रबंधन, चीन की कुटिल चाल और अलोकतांत्रिक सरकार का नतीजा है। आज वहां की जनता को बेकसूर होने के बावजूद दुःख सहना पड़ रहा है।


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