दरिया बना दिया

खुद को तलाशने चले आबे-जहान में,
तिनके से बह चले हैं नदी के उफान में।
मजबूर हैं साहिल जिग़र से टूटने को अब
गहरे मिले हैं ज़ख़्म यूँ लहरों की आन में।

कल तक हरे थे खेत जो दरिया के करम से,
दरिया बना दिया उन्हें दरिया ने शान में।
थे कद्र-दाँ दरख़्त जो दरिया की मौज के,
वो बह चुके उखड़ के मौजे- बदगुमान में।



साहिल के दरख़्तों पे चहकते थे परिंदे,
अब दर्द उमड़ता है उनका उनके गान में।
तिरतीं थीं खुशी ले जो कस्तियाँ सुकून से,
डूबीं उसी दरिया के तल्ख़ इम्तिहान में।

नाले भी बह के देते समंदर को  चुनौती,
तिरती हैं मछलियाँ जब इनके दरमियान में।
बरसात के मौसम में मेढकों के नगाड़े,
शामिल हैं आज बादलों के कद्रदान में।

बगुलों के झुण्ड दिख रहे हंसों के  रंग में,
अटकी हैं जैसे साँसें मछलियों की जान में।
यूँ ख़्वाहिशों के कारवाँ सफर पे चल पड़े,
तस्वीर लिए मंजिलों की इत्मीनान में।
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गोपाल शरण सिंह
कवि व शिक्षक सोनूघाट, देवरिया।

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