माननीयों के ये बोल...!

Meena Verma
इन दिनों उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल गर्म है। गर्मी के इस दौर में राजनीतिक दलों के नेताओं और प्रत्याशियों के बोल भी बेहद गर्म हो रहे हैं। अब हर बात खुलेआम बोली जा रही है। ऐसे में यह संवैधानिक दायित्व चुनाव आयोग का है कि वह चुनाव संहिता, गरिमा और शुचिता भंग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करे। यदि चुनाव प्रचार के दौरान ‘गर्मी-चर्बी’ उतारने की अश्लील भाषा बोली जा रही है, ‘हिंदूगर्दी’ के सांप्रदायिक बोल बोले जा रहे हैं और सरेआम बदला लेने की धमकियां दी जा रही हैं, तो ऐसी अपसंस्कृति का संज्ञान कौन लेगा? क्या उप्र में चुनाव इन धमकियों के आधार पर तय होगा? अथवा चुनाव आयोग दोषी उम्मीदवारों के नामांकन रद्द करने और उनके दलों की मान्यता निलंबित करने के फैसले लेगा?
यह एक सवाल तो है, लेकिन ऐसी बातों पर चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करेगा इस बात की कोई संभावना बेहद कम है। उम्मीद इसलिए भी कम है, क्योंकि सवाल सत्तारूढ़ दल पर भी हैं। चुनाव लोकतंत्र की एक अनिवार्य और बुनियादी प्रक्रिया है, लेकिन संविधान ने कुछ तो मर्यादाएं तय की होंगी? यदि संविधान का ही उल्लंघन किया जाता है, तो चुनाव के मायने क्या हैं? ऐसे चुनावों के बाद जो सरकार बनेगी, उससे संवैधानिक मर्यादाओं की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? हाल यह है कि सीएम योगी सार्वजनिक मंच से कहते हैं कि ‘10 मार्च के बाद सारी गर्मी शांत कर देंगे।
मैं तो मई-जून में भी ‘शिमला’ बन देता हूं।’ 10 मार्च को जनादेश सार्वजनिक होना है। ‘चूंकि भाजपा ने योगी को उनके घर भेज दिया है, इसलिए उन्हें गर्मी आ रही है’, यह पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का पलटबयान था। रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी कुछ और हदें लांघ गए और उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को उकसाया कि भाजपा वालों की चर्बी उतार दो। सपा के एक प्रत्याशी की भाषा थी-‘इंशाल्लाह हम उन्हें नहीं छोड़ेंगे। बदला लेंगे।’ सपा के ही एक और नेता का बयान था-‘इन्होंने पांच साल में बहुत ‘हिंदूगर्दी’ मचाई है। हर थाने में ‘हिंदूगर्दी’ है। आप बेफिक्र रहें। अपनी सरकार बन रही है। इन्हें नहीं छोड़ेंगे।’
उप्र चुनाव के दौरान यह शब्दावली आम सुनाई-दिखाई दी है। यह ‘गर्मी’, ‘चर्बी’,‘ हिंदूगर्दी’, ‘बदला’ सरीखे शब्दों के मायने क्या हैं? ्गर इन माननीयों के ये बोल हैं तो आने वाले समाज की क्या हालत होगी क्या कोई सोच सकता है। दरअसल यह देश और सभ्य समाज की अपेक्षाओं का सवाल है और यह कुल जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। चुनाव प्रचार की भी एक भाषायी मर्यादा होती है। क्या संविधान में सरकार की व्याख्या यह की गई है कि वह सरेआम बदला लेने की धमकी दे? ऐसी धमकियां तो कानूनन अपराध के दायरे में आती हैं, लेकिन पुलिस भी चुनाव आयोग के आदेश पर ही कार्रवाई करेगी, क्योंकि चुनाव की आदर्श आचार संहिता लागू है। ओवैसी तो लगातार ऐसे संबोधन करते रहे हैं कि वे आपत्तिजनक रहे हैं, लेकिन कोई संज्ञान नहीं। ये गालीनुमा शब्द अक्सर अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहे गए हैं। दलील दी जा रही है कि यदि कांशीराम-मुलायम सिंह ने अपने प्रबल दौर में 85 बनाम 15 के आह्वान किए थे और मंडल-कमंडल समाज को विभाजित करने की कोशिश की थी। उसका हस्र भी लोगों ने देखा। आखिर ये नेता यह क्यों नहीं समझते ही समाज को सही दिशा देने की उनकी महती जिम्मेदारी है। फिर उनके बोल बहक क्यों रहे हैं। आज की पीढ़ी अंगूठा टेक नहीं है, जो सुने और फिर भूल जाए। ये पीढ़ी उच्च शिक्षित है। आधुनिक इंजिनियरिंग कालेजों से निकले इंजीनियर हैं, डाक्टर हैं तो कई कुश टेक्नोक्रेट हैं। इन्हें आसानी से बहलाया नहीं जा सकता। उसके मानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। दल और नेता की क्या सार्वजनिक छवि बनेगी? 

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