रैदास की बाणी, हम और हमारा समाज

- कृष्ण कुमार निर्माण
संत रैदास कहते हैं कि- एकै माटी के सब भांडे, सब का एको सिरजनहारा।रैदास व्यापै एको घट भीतर, सब को एकै घड़ै कुम्हारा।। इसका साफ और सीधा अर्थ समझ आता है कि हम सब इंसान,एक ही ईश्वर ही सन्तान है और आपस में कोई भेद नहीं है। ऐसा ही कुछ बाबा नानक ने कहा है कि-एक नूर से सब जग उपज्या कौण भले, कौण मंदे। मतलब इसका भी साफ समझ आ रहा है कि इस धरती पर सभी मनुष्य अलग नहीं है बल्कि एक ही है। संत बाबा अवतार सिंह जी ने भी लिखा है कि-एको नूर है सबदे अंदर नर है चाहे नारी है, ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, हरिजन एक दी खलकत सारी है।



इसका भी साफ मतलब है कि कोई भी बेगाना नहीं है, कोई ऊंच नीच नहीं है, कोई पराया नहीं है, कोई जात से बड़ा छोटा नहीं है बल्कि डंके की चोट पर सब एक हैं सबका एक आधार है ईश्वर, नाम ईश्वर के अलग अलग हो सकते हैं जैसे कि खुदा, भगवान, ईश, परवरदिगार आदि आदि पर ये सब पर्यायवाची हैं, अलग नहीं हैं। इन संतों के अलावा कितने ही ऐसे संत, महात्मा, पीर, फकीर, साधु, पैगम्बर हैं जिन्होंने ऐसी ही बातें कहीं हैं और न केवल कही हैं बल्कि अपने दौर में इस समाज को समझाने का प्रयास भी किया है।
सवाल यह है कि क्या हमें  केवल जयंती मनाने तक ही सीमित रहना चाहिए या फिर उनकी कही गई बातों पर भी ध्यान देकर खुद को बदलना चाहिए? हमारा मानना है कि जयंती मनाई ही इसलिए जाती है कि जिसकी हम जयंती मना रहे हैं, उनके विचारों को आत्मसात करें और खुद को बदलें। आखिर हम खुद को कब बदलेंगे? क्योंकि आज भी जाति जिंदा है और इसी जाति के कारण बहुत भेदभाव है, अत्याचार है, अमानवीयता है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता और हालात ये हैं कि इसी जाति के कारण लोग तिल-तिलकर मर रहे हैं फिर काहे की जयंती मना रहे हैं हम!सोचिए और संतों से प्रेरणा लेकर खुद को बदलिए। अब दूसरी बात पर आते हैं संत रैदास लिखते हैं कि-ऐसा चाहूँ राज मैं मिले सबन को अन्न, छोट बड़ सब सम बसै, रविदास रहे प्रसन्न।।
इससे पहले कि आगे चले यहाँ छोट-बड़ का अर्थ है, बच्चे और बड़े, न कि जाति से छोटे-बड़े। क्योंकि दिक्कत हमारे अंदर यही है कि हम अपनी सुविधानुसार मतलब निकालते हैं और दिक्कतें पैदा हो जाती हैं। इसी तरह से संत कबीर लिखते हैं कि-साईं इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ, साध न भूखा जाय।। ऐसी ही बहुत सारी बाणी हमारे यहाँ हैं जिन्हें हम पढ़ते हैं और यहाँ तक उन्हें विशेष अवसरों पर उद्धरित करते हैं कि देखो! हम ऐसे लोग हैं, ये है हमारी संस्कृति और सभ्यता। निश्चित रूप से ये सही भी है और ऐसा करना भी चाहिए लेकिन साथ-साथ यह भी तो सोचना चाहिए कि क्या हम इन सन्तों की बाणी को केवल बोलते हैं या ये धरातल पर भी हैं क्योंकि आज के दौर में इस संदर्भ में बेहद असमानता है।कम से कम अपने भारत में तो इतनी असमानता है कि बस पूछिए मत क्योंकि इस देश की कुल संपति का नब्बे प्रतिशत देश के कुल पचास लोगों के पास है और बाकी लोगों के पास मात्र दस प्रतिशत है और राज कैसा है, इसके बारे में तो सवाल ही करना ठीक नहीं होगा? राज को तो बहुत कुछ बदलाव लाने की जरूरत है। शुरू से राज अहंकारी रहा है, आज भी है। राज ने कब समानता लाने की सोची है बल्कि इसी राज ने जात-धर्म की दिक्कतें पैदा की हैं और निरंतर कर राह है। सोचिए! फिर क्यों ये दिखावा हम कर रहे हैं, इसे बदलिए और जैसा संत रविदास जी ने लिखा है वैसा राज स्थापित करने का काम कीजिए तब जाकर हम संत रविदास की जी अनुयायी कहलाने के सच्चे अधिकारी होंगे।
अगली बात मानव जीवन के चरित्र की जिस पर अक्सर बहुत सारी बातें सुनने को मिलती हैं, बहुत उपदेश सुनने को मिलते हैं पर संत रविदास जी ने एक ही बात में निचोड़ कर दिया कि-मन चंगा तो कठौती में गंगा।यकीनन इसी को हम आत्मसात कर लें तो न जाने कितनी ही समस्याएं झट में हल हो जाएं पर हम हैं संतों को मानने वाले और उनकी बातों से परहेज करने वाले जबकि होना यह चाहिए कि हम संतों को तो माने ही माने, साथ-साथ संतों की बातें भी माने तो नजारा ही बदल जाए। शत शत नमन महान संत को।

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