नारी शिक्षा के विशेष संदर्भ में स्वामी विवेकानंद                               

- डा.ओपी चौधरी
महान कर्मयोगी, भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक, समाज सुधारक, अध्यात्म मनीषी, विचारक, दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी,1863 (जिसे हम युवा दिवस के रूप में मनाते हैं, जो किसी भी समाज के थाती होते हैं) को कोलकाता में ऐसे समय हुआ जब भारत दासता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था। समाज में कुरीतियां, छुआ- छूत, ऊंच -नीच, भेद-भाव का बोलबाला था, महामारी से जन- जीवन संत्रस्त था। स्त्रियों की दशा सोचनीय थी, ऐसे कालखंड में स्वामी जी ने भारतीयों को एकता के सूत्र में पिरोने तथा मानव धर्म की ओर प्रेरित करने का प्रशंशनीय कार्य किया। वे प्रखर मेधा के धनी थे, प्रज्ञावान, धैर्यवान, तत्वज्ञान के मर्मज्ञ थे। उनका दर्शन और विचार पाश्चात्य देश भी स्वीकार कर रहे हैं।



उनका दृष्टिकोण बहुत व्यापक था, महान दार्शनिक व विचारक होने के नाते सभी पहलुओं को छुआ है, लेकिन यहां हम नारी शिक्षा के विशेष संदर्भ में वार्ता करेंगे। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द जी का कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए -व्यक्ति में अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति। वास्तव में व्यक्ति के अंदर उपस्थित गुणों का का विकास करना ही तो वास्तविक शिक्षा है। वास्तव में यह परिपूर्णता बाहर से नहीं आती है, वरन व्यक्ति के भीतर छिपी रहती हैं। शिक्षा उसका परिष्कार मात्र करती है। स्वामीजी स्त्री शिक्षा पर इसलिए भी बहुत जोर देते थे कि उनकी सोच थी कि स्त्रियों की शिक्षा प्राप्ति के बाद कई समस्याओं का समाधान स्वतः हो जाएगा।
स्वामी विवेकानंद नारी शिक्षा पर बल देते हुए उसे मानसिक धरातल पर आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। उनका कहना था कि हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए जहां वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है, न किसी को करना ही चाहिए। उनका स्त्री -बोध आध्यामिकता-भौतिकता में समाहित है। स्त्रियों के विषय में बात करते हुए वे कहते थे कि भारतीय स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती आदि हैं।गार्गी, लोपामुद्रा, मैत्रेयी, सुलभा, वाचकनवी, लीलावती आदि विदुषी थीं। उन्हें विद्वानों की सभा में सम्मान व आदर प्राप्त था। स्वामी जी की महान शिष्या भगिनी निवेदिता का कहना है कि,"उनको स्त्रियों से डर नहीं लगता था। उनकी अनेक शिष्याएं थी, सहकर्मी थीं और सहेलियां भी थीं। वे इन लोगों के श्रेष्ठ गुण और चरित्र देखते थे। वे हमेशा अपने शिष्यों से कहा करते थे कि हमारा उद्देश्य स्त्रियों और पिछड़े लोगों का उद्धार करना है।
स्त्री -शिक्षा के स्वरूप के बारे में विवेकानंद जी के विचार पर भी दृष्टिपात करना चाहिए, "हम चाहते हैं कि भारत की स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाय जिससे वह निर्भर होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भलीभांति निभा सकें और संघमित्रा, सीता, अहिल्याबाई, मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलाई गई परंपरा को आगे बढ़ा सकें"। स्वामी जी का मानना था कि देश की आध्यात्मिकता, नैतिकता के उच्च स्तर को बनाये रखने में महिलाओं का योगदान अधिक है, इसलिए भी उनकी शिक्षा का बेहतर प्रबंध होना चाहिए। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक महिलाओं ने अपने ढंग से इस आदर्श को जीवन्त रखा है। स्वामी इस बात पर जोर देते रहे कि महिलाएं प्राचीन मूल्यों, आदर्शों के आधार पर ही अपनी उन्नति और प्रगति करें,वर्तमान परिवेश के साथ ही नागरिक कर्तव्य बोध के क्षेत्र में भी अपने को प्रतिस्थापित करें।
स्वामी विवेकानंद की नारी शिक्षा में सन्निहित भावना का उल्लेख समीचीन है-"निवेदिता, मैं बार - बार यही कहता हूं कि तुम्हारे देश की नारियों की तरह आगे बढ़ने के लिए यहां की नारियों को शिक्षा मिलनी चाहिए। शिक्षा से उनमें आत्म-जागृति तथा आत्म विश्वास आएगा, उन्हें अपने अस्तित्व का एहसास होगा। यह सभी एक शतक का कार्य है। अभी तो उसकी रूपरेखा तैयार हो गयी है।" इस वक्तव्य के एक शतक से भी अधिक का समय व्यतीत हो जाने के पश्चात भी ऐसी शिक्षा का अस्तित्व अभी तक पूर्ण नहीं हो सका। उत्तम शिक्षा को विवेकानंद जी राष्ट्र निर्माण के लिए एक सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे।उनका मानना था कि  शिक्षा मनुष्य के भीतर अंतर्निहित पूर्णता के विकास का माध्यम है। वे शिक्षा की सृजनशीलता, रचनात्मकता, व्यक्तित्व प्रशिक्षण पर जोर देते थे। शिक्षा मानव को मानवीय गुणों से सम्पन्न करती है। शिक्षा के द्वारा ही आंतरिक गुणों का विकास, प्रस्फुटन एवं परिष्कार हो सकता है। नारी शिक्षा के माध्यम से ही उन्हें सबल, सक्षम, सुविकसित और प्रबुद्ध बनाया जा सकता है।उदारता, ममता, निर्भीकता, निष्पक्षता, निर्णयशक्ति आदि ऐसे गुण हैं जिनके प्राप्ति से ही मानवता सार्थक होती है।
संत विवेकानंद भारतीय स्त्रियों की दयनीय दशा से अत्यन्त मर्माहत थे। वे नारी और पुरुष के बीच के अंतर की आलोचना करते हुए कहते थे कि सभी प्राणियों में वही एक आत्मा ही विद्यमान है,इसलये उन पर अनुचित नियंत्रण अवांछनीय है। जिस देश में नारी का सम्मान नहीं होता वह कभी भी उन्नति नहीं कर सकता है। नारियों की शिक्षित होने और उनकी उन्नति से ही ज्ञान, शक्ति, शौर्य और संस्कृति का देश में जागरण हो सकता है। स्वामी जी का मानना था कि भारतीय नारी त्याग-तपस्या, पवित्रता, धैर्य, सदाशयता, सहृदयता, संवर्दनशीलता, शौर्य, बलिदान, दया, करुणा, ममता, संतोष, सेवा, क्षमा, संस्कार, रचनाशीलता, कर्तव्यपरायणता, निष्ठा आदि सद्गुणों का विकास करके भारत की सांस्कृतिक उदात्तता और आध्यत्मिकता के उच्च स्तर को अक्षुण्ण बनाये रखा है।

- सह आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज वाराणासी।

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