- डा.कुमार वीरेंद्र
राजनीतिक स्तर पर 'मगध' का क्षेत्र विस्तार अब उतनी जगह नहीं घेरता, पर मगध आज भी रचना और आलोचना का विषय है। मगध की संस्कृति, भाषा और ज्ञान-परंपरा का अंतरण होता रहता है, क्षरण नहीं। मगध मन से मन में, काल से काल में अनुभव किया जाता हुआ सोचा जाता हुआ प्रवाहित होता रहता है। शासक चले गए, भौतिक घर-सामग्री चली गई, पर 'मगध' है। मनुष्य की बुद्धि के सहारे 'मगध' शेष है।


मनुष्य की बुद्धि पर ही भरोसा कर अशोक ने शिला के शरीर पर खुदाई कराकर अपनी बात कहने का जिम्मा पत्थरों को दे दिया था। अशोक को इत्मीमनान था कि ये शिलाएँ अनंत काल तक अचल खड़े रहकर हर दर्शक, हर पथिक, हर मगधवासी को हमारी बातें बताती रहेंगी और हर नया शख्स इन्हीं बातों को देख-पढ़कर हमें सजीवता प्रदान करता रहेगा। यही मगध है, पत्थर पर लिखकर भी नये-नये युग से जुड़े रहने की अदम्य अभिलाषा। ह्वेनसांग मगध से कागज पर लिखी इबारतें ही तो ले गया था, जिसे राहुल सांकृत्यायन खच्चर पर लादकर लाते रहे और 'मगध' को बचाते-सजाते रहे। मगध जितना लिखित में है, उससे कहीं ज्यादा मौखिक में है, जितना नगर में है, उससे ज्यादा गाँव में है, जितना गद्य में है, उससे अधिक गीत में है। 'मगध' को आँख भर देखने और मन भर अनुभूत करने के इरादे से मगध आने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। मगध निर्वाण नहीं, ज्ञान के लिए मशहूर रहा है। ज्ञान की भूख बुद्ध, महावीर, मक्खलि गोसाल को मगध खींच लायी थी और ज्ञान की आकुलता के बूते ही आर्यभट्ट, जीवक, बाणभट्ट मगध के बाहर कदम रख पाए। मगध का अपना दर्शन है और अपना व्याकरण भी। मगध के दर्शन और व्याकरण दोनों में गाँव के गुड़ की तरह अनगढ़पन है, चीनी की तरह सुघड़पन नहीं, यही मगध का सौंदर्य है और आकर्षण का हेतु भी।
बुद्ध के दर्शन से आकर्षित होकर स्वामी विवेकानन्द ने दो बार मगध की यात्रा की थी। पहली बार सन् 1885 में विवेकानन्द बोधगया पहुंचे तो बुद्ध की मूर्ति के पास घंटों ध्यानस्थ होकर बैठे और बुद्ध और बुद्ध के दर्शन को लेकर मनन करते रहे। उस समय बोधगया में मडुए की रोटी मुख्य खाद्य थी, जो स्वामी जी को रचती नहीं थी और पचती भी न थी। इस कारण वह सप्ताह भर भी बोधगया में न रुक सके। दूसरी बार वाराणसी जाने के क्रम में 29 जनवरी, 1902 को बोधगया पहुँचे और बुद्ध को प्रणाम निवेदित करते हुए साथ-साथ चल रहे तेनसिन ओकाकुरा, जोसेफिस मैक्लाउड, स्वामी निर्भयानन्द और स्वामी बोधानन्द से उन्होंने बौद्ध दर्शन पर बातें कीं।
सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह का जन्म मगध के पटना में 1666 ई. में हुआ था, जिन्होंने आगे चलकर 'पाहुल' (दीक्षा) की प्रथा शुरू कर सिक्ख समुदाय से जातिभेद को खत्म करने की कोशिशें की और धूम्रपान तथा तम्बाकू सेवन को वर्जित करके 'पंच ककार' (केश, कंघ,, कड़ा, कृपाण और कच्छा) के नियम बनाए। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने इन प्रयासों को दार्शनिकता प्रदान की और सिक्खों को धार्मिक समूह के साथ ही एक मजबूत राजनैतिक शक्ति के रूप में संगठित किया।
हिन्दी संत काव्य परंपरा में एक बड़े संत के रूप में जाने जाने वाले दरिया साहेब (1734-1780 ई.) का जन्म मगध में ही हुआ। दरिया साहेब ने अवतारवाद, मूर्तिपूजा, जातिभेद, तीर्थ-व्रत आदि का खंडन किया। इन मामलों में वे कबीर से प्रभावित थे। उनकी काव्यकृतियों- 'ज्ञान स्वरोदय', 'दरियानामा', 'दरिया सागर', 'ज्ञान रत्न', 'विवेक सागर', 'ज्ञानदीपक' और 'सहजयानी' आदि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उन्होंने बाह्य और अंत:जगत् को प्रत्यक्ष अनुभूति के आधार पर एक पारदर्शी दृष्टि से देखा।
मगध चीजों को अनुभूति के आधार पर ही देखना-परखना चाहता है, दुःख के पीछे के कारणों की तलाश करना चाहता है, उक्ति और सूक्ति के पीछे के लोक को ढूंढ़ना-परखना चाहता है। मगध का समकाल भले हल-फाल से ऊपर उठ गया हो, पर गुड़ की मिठास, धनिया-अमरूद और आम की सुबास बरकरार है; नल-जल घर-घर पहुँच गया हो, फिर भी अड़ही गड़ही, कुआ, तालाब, पोखर और नदी का महत्व बरकरार है। आज भी मगध मांगलिक कार्यों की शुरुआत कुआँ, नदी, मिट्टी, वायु का पूजकर ही करता है। तमाम अनुशासनों के विकास के बावजूद आज भी मगध डूबते हुए सूर्य को पहला अर्घ्य देता है। दुनिया उगते हुए सूर्य को सलाम करती है तो करती रहे, मगध का अपना लोक दर्शन है- डूबते हुए को पहले प्रणाम।
मगध में एक बड़ी कमजोरी है, वह प्रायः किसी को टोकता-रोकता नहीं है। बेरोक-टोक आने-जाने की आजादी देता है मगध और वह भी स्वयं खामियाजा भुगतने की शर्त पर। सन् 1761-62 में सिरिस-कुटुम्बा रियासत के राजा नारायण सिंह ने बनारस के राजा पर हमला करने जा रहे ब्रिटिश सैनिकों की पैदल टुकड़ी को रोका था, सोन नदी में सैकड़ों सैनिकों को डूबोकर उन्होंने मार डाला था और देशी राजा की हिफाजत की थी। पर दस हजार विद्यार्थी और दो हजार शिक्षकों ने मिलकर उन दो सौ घुड़सवार आक्रमणकारियों को नहीं रोका, जो तत्कालीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने आए थे, मगध ने टोका नहीं कि इतने बड़े ज्ञान केन्द्र को क्यों नष्ट किया जा रहा है। मगध से गुजरने वाली लंबी-लंबी सड़कों पर वाहन की गति जीवन की गति को प्रभावित कर रही है। गाड़ी की गति की चपेट में रोज दो-चार इंसानों की जिन्दगियाँ आ रही हैं। पर मगध उनको टोकता ही नहीं, जिन्होंने सड़क पर चलने वाले गाड़ी सवारों की गति का ब्लूप्रिंट तैयार किया है।
मगध पैदल वालों से पूछता है, उनको टोकता है, पर मोटरसाइकिल, कार और ट्रक सवारों को नहीं रोकता-टोकता। कारवाँ गुजरने के बाद गुब्बार देखने के लिए मगध अभिशप्त तो नहीं हो रहा है? सरकारें आती हैं, मगध को उम्मीद बंधाती हैं, सरकार जाती हैं, मगध हाथ मलता रह जाता है। 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' एक बार ठीक से कहा था मगध ने, दिल्ली हिल गयी थी। फिर मगध में लंबे समय से चुप्पी है या द्वंद्व, यह काल तय करेगा। राजतंत्र के जमाने में स्कंदगुप्त से ध्रुव देवी ने लोकतंत्र का सवाल पूछा था, अब लोकतंत्र के जमाने में मगध की महिलाएँ पंचायती राज प्रणाली के तहत निर्वाचित होकर लोकतांत्रिक प्रश्न उठाने के लिए आगे बढ़ रही हैं।
आज के मगध का यथार्थ कालिदास के 'रघुवंश' महाकाव्य के छठे सर्ग में वर्णित राजा परंतप के युग का यथार्थ नहीं है और न ही बिम्बिसार की  विस्तारवादी नीति से युक्त राजगृह का यथार्थ। आज के मगध का यथार्थ प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की ज्ञान परंपरा का यथार्थ नहीं है और न ही बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह, शहीद जगतपति कुमार जैसी शख़्सीयतों के आंदोलन का यथार्थ। आज के मगध का यथार्थ मोहन लाल महतो वियोगी और जानकी वल्लभशास्त्री के साहित्य का यथार्थ नहीं है। और न तो वह सामाजिक अनुक्रम है, जो चाणक्य के दौर में था। लेकिन अपने जिस यथार्थ के लिए मगध प्रसिद्ध रहा है उसका एक सिरा इंसानी संवेदना से जुड़ा हुआ है।
 काल की यथार्थता भले जुदा-जुदा हो पर संवेदना की यथार्थता तो महत्तम समापवर्तक की तरह एक ही है। सन् 2021 में कोरोना वायरस ने मगध को ऐसा जख्म दिया कि दर्द हाड़ फोड़कर निकलने पर आमादा था फिर भी मगध बरकरार है। मगध का समकालीन यथार्थ मानवीय संवेदनाओं का यथार्थ है और इसी के बूते आज भी मगध में संजीदगी है। मगध को निचोड़ा गया है, इतिहास गवाह है, पर मगध बरकरार है। मगध आज भी अपने द्वार पर आए हुए को बिना कुछ खिलाए-पिलाए लौटने नहीं देता। चिमनियों और गाड़ियों से उगले जा रहे धुएँ की धुंध के बीच भी मगध में विचार और संवेदना की मौजूदगी, भरोसे का भाव पैदा करती है।
- आलोचक व एसोसिएट प्रोफ़ेसर
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

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