तिनका-तिनका रिक्त हो गया
मानस महल, अमूल्य कोष वह
नीरस अधर हुए रसव्यापी
कभी पिपासित भटक रहे वह।
जलद अकेला निर्जल होकर
अमिय बूँद की करे प्रतीक्षा
आश्रम आश्रय या पद ठोकर
हे ईश्वर! यह तेरी इच्छा।
भरा हुआ घट असंतृप्त था
रिक्त कलश अब कौन भरेगा?
मेघ गर्जना विकल व्योम की
जब थमती तब, प्रलय समझना
तृषा तरस जाएगी रस को
उष्ण मलय अभिशाप मिलेगा।
दोहन करो जलद उतना ही
कहीं धरा पर गिर ना जाए
या क्रोधित हो तप्त हृदय से
शूल दहकते नभ बरसाए।
विभावरी प्रिय गमन कर रही
नव आगमन प्रणय होता है,
अखिल ब्रह्म की रीत सदा से
सूर्य सुप्त, विधु रैन जगा है
अथक परिश्रम भूल गया जग
रश्मिरथी बस स्मरण रहा है।
कठिन तपस्या, कठिन लड़ाई
तन माटी, मन शीतल छाँई
आज रिक्त तू विरह व्यथित है
सूक्ष्म दृष्टि में, शून्य कथित है,
विस्मृत कर कुछ अधर पिपासा
रहे सदा अस्तित्व की आशा
संग्रह शेष, कोष में तेरे
घट तू व्यापी, घट में मेरे
बिसरे जग लोभी, कदापि नहीं
आस तनिक यदि रही सु माँही,
पुनः संकलित अमिय स्रोत बन
वसुंधरा से स्वर्ग तलक तन।
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- महिमा तिवारी,
रामपुर कारखाना, देवरिया (उ.प्र)।
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