अब तुमको अहसास हुआ है-
कत्ल किया, पर गलत किया ।
हम मरकर भी खुश हैं जालिम-
बोल कैसा है तेरा जिया ।
नहीं जान पाया हूँ अब तक,
बहती चाल हवाओं की-
कितनी बार उड़ा और गिर
गया आखिर ठहरा नोसिखिया ।
मुझको शंकर नहीं बताओ,
में पत्थर बन जाऊंगा-
एक तेरे कहने पर हमने,
बार-बार यह जहर पिया ।
बोलो कहाँ छिपोगे कब
तक, मेरी यादों से बचकर-
माना कि बदनाम किया,
पर तुमने मेरा नाम लिया ।
मेरेआँसुओं पर तैर-तैर कर
जाने कितने पार गए-
करवट लेते-लेते बीती,
अपनी तो सारी रतिया ।
मानवता की बात करें,
और जीवों से घृणा करते-
ठंड-भूख से मरी गली में,
रहती जो कानी कुतिया ।
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- प्रमोद गुप्त
जहांगीराबाद (बुलन्दशहर) उ.प्र.।
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