ऐसे थे बिरसा मुंडा. जिन्होंने नए धर्म की नींव डाली

 संजय वर्मा 

  मेरठ। 1894 में बिरसा मुंडा ने बिरसाइत धर्म की शुरुआत की जो पूरी तरह से प्रकृति को समर्पित थाण्इस धर्म को मानने वालों का एक ही लक्ष्य था प्रकृति की पूजा।धरती बाबा, महानायक और भगवान बिरसा मुंडा को ये तीनों नाम यूं ही नहीं मिले अंतिम सांस तक अंग्रेजों से अधिकारों की लड़ाई लडऩे वाले और प्रकृति को भगवान की तरह पूजने वाले बिरसा मुंडा की आज जयंती है।  देश में आज इनकी जयंती को जनजाति गौरव दिवस के तौर पर मनाया जा रहा है।

इस मौके पर पीएम नरेंद्र मोदी ने झारखंड में बिरसा मुंडा संग्राहलय का उद्घाटन किया और इसे देशवासियों को समर्पित किया।बिरसा मुंडा कौन थे, अंग्रेजों के खिलाफ इन्होंने क्यों बिगुल फूंका और एक नए बिरसाइत धर्म की शुरुआत क्यों की,जानिए इन सवालों के जवाब।

अंतिम सांस तक आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे 

आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के खूंटी जिले में 15 नवंबर, 1875 को हुआ था। आदिवासी परिवार में जन्मे बिरसा मुंडा के पिता सुगना पुर्ती और मां करमी पूर्ती निषाद जाति से ताल्लुक रखते थे। बिरसा मुंडा का सारा जीवन आदिवासियों को उनके अधिकारों के लिए जागरुक करने और आदिवासियों के हित के लिए अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बीता।ंअग्रेजों के खिलाफ आंदोलनों के कारण कई बार इनकी गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन न तो यह सफर थमा और न ही अधिकारों की लड़ाई मंद पड़ी।

परिवार ने ईसाई धर्म अपनाया लेकिन इन्हें नागवार गुजरा

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म को अपनाया था धर्म परिवर्तन के बाद इनका नाम दाऊद मुंडा और पिता का नाम मसीह दास हो गया। धर्म परिवर्तन के कारण इनकी पढ़ाई एक मिशनरी स्कूल में हुई, लेकिन ईसाई समाज द्वारा बार.बार मुंडा समुदाय की आलोचना करना इनको नागवार गुजरा। वो हमेशा से ही इस आलोचना के खिलाफ थे।नतीजा आदिवासियों के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने के लिए वो पूरी तरह इसी समुदाय से जुडऩे का निश्चय कर लिया।

ऐसे शुरू हुआ संघर्ष

ब्रिटिश सरकार के समय शोषण और दमन की नीतियों से आदिवासी समुदाय बुरी तरह जूझ रहा थाण् इनकी जमीनें छीनीं जा रही थीं और आवाज उठाने पर बुरा सुलूक किया जा रहा थाण् अंग्रेजों का अत्?याचारों के खिलाफ और लगान माफी के लिए इन्होंने 1 अक्टूबर 1894 को समुदाय के साथ मिलकर आंदोलन किया।895 में इन्हें गिरफ्तार किया गया और  हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल करावास की सजा दी गई।

अंग्रेजों से लोहा भी लिया और हराया भी

अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा मुंडा की लड़ाई यूं तो बहुत कम उम्र में ही शुरू हो गई थीए लेकिन एक लम्?बा संघर्ष 1897 से 1900 के बीच चलाण् इस बीच मुंडा जाति के लोगों और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहेण् बिरसा और उनके समर्थकों ने तीर कमान से ही अंग्रेजों से युद्ध लड़ा भी और जीता भीण् बाद में अपनी हार से गुस्साए अंग्रेजों ने कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार भी किया।

जनवरी 1900 में डोम्बरी पहाड़ पर एक जनसभा को सम्बोधित कर रहे बिरसा मुंडा पर अंग्रेजों ने हमला किया। इस हमले में कई औरतें व बच्चे मारे गए। शिष्यों की गिरफ्तारियों के बाद 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों ने इन्हें भी बंदी बना लिया।

हार से गुस्सा, अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को दिया जहर

बिरसा मुंडा में अंतिम सांस 9 जूनए 1900 को ली जब रांची कारागार में अंग्रेजों ने इन्हें जहर देकर मार दिया।  रांची के डिस्टलिरी पुल के पास बिरसा मुंडा की समाधि बनी है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में इन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। रांची का केंद्रीय कारागार और एयरपोर्ट भी इनके नाम पर ही है।  10 नवंबर 2021 को केंद्र सरकार ने इनकी जयंती के दिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।




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