सुभारती लॉ कॉलिज के विद्यार्थियों ने किया लोक अदालत का शैक्षणिक भ्रमण
By News Prahari -
इस अवसर पर सुभारती लॉ कॉलिज के संकायाध्यक्ष प्रो.(डॉ.) वैभव गोयल भारतीय ने छात्रों को लोक अदालत के महत्व के विषय में बताते हुए कहा कि लोक अदालत के माध्यम से वादकारी अपने विवादों को कम समय में शीघ्रता से सुलझा सकते हैं, और न्यायालयों पर काम के बढ़ते हुए बोझ को कम किया जा सकता है। जैसा की नाम से स्पष्ट है लोक अदालत का अर्थ है जनता का न्यायालय। लोक अदालत वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रिया का ही एक माध्यम है, जो कि प्राचीन समय में भारतीय ग्रामीण परिवेश में पंचायत व्यवस्था के रूप में प्रचलित थी। लोक अदालत को सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के तहत सिविल कार्यवाही की शक्तियां प्राप्त है। इसके साथ ही दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 व अध्याय 6 के लिए की गई कार्यवाही भी सिविल कार्यवाही होती है। वर्ष 1976 में 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 39 (क) संविधान में जोडा गया। जिसके द्वारा शासन से यह अपेक्षा की गई कि वह सुनिश्चित करे कि भारत का कोई भी नागरिक आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और किसी अन्य प्रकार के विभेद के आधार पर न्याय पाने से वंचित न रह जाए। इस उद्धेश्य की पूर्ति के लिए 1980 में केन्द्र सरकार के निर्देश पर सारे देश में कानूनी सहायता बोर्ड स्थापित किये गये। भारत में लोक अदालतों की शुरूवात सन् 1982 में गुजरात मे हुई। सन् 1987 के विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम से लोक अदालत को वैधानिक मान्यता प्रदान की गई। लोक अदालत का उद्धेश्य समता के आधार पर वादकारियों को त्वरित न्याय प्रदान करना है। उन्होनें बताया कि लोक अदालत द्वारा पारित अवार्ड एक सिविल न्यायालय द्वारा पारित डिक्री के जैसा होता है और इसका निष्पादन सिविल न्यायालय द्वारा पारित डिक्री की तरह से कराया जा सकता है। लोक अदालत द्वारा मुकदमों के निपटारे से वादकारी का वकील पर खर्चा नही होता और कोई फीस नही लगती है, पुराने मुकदमों की कोर्ट फीस वापस हो जाती है, मुआवजा व हर्जाना तुरन्त मिल जाता है, सभी को आसानी से न्याय मिल जाता है ।
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