Dolly singh 
टांसिलाइटिस से कभी-न-कभी हर किसी को सामना करना पड़ता है। जब टांसिल्स सूज जाते हैं तो कुछ भी खाना-पीना भारी पड़ता है। थूक तक नहीं निगला जाता। यहां तक कि आवाज बदल जाती
है और बोलने में काफी कष्ट होता है।  
आखिर गले में यह दिक्कत क्यों पैदा हो जाती है?
गले की दोनों दीवारों पर छोटी गिल्टियां होती हैं। ये गिल्टियां पहरेदार के रूप में काम करती हैं। ये शरीर में अवांछित तत्वों का रास्ता रोकती हैं। गले के रास्ते जब रोगाणु शरीर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं तो ये उन्हें रोकने की पूरी कोशिश करती हैं किंतु संक्र मण के कारण जब यह फूलकर बड़ी हो जाती हैं तो न सिर्फ गले को जबरदस्त पीड़ा देती हैं बल्कि रास्ता भी अवरूद्ध कर देती हैं। ऐसे में भयंकर पीड़ा सहनकर ही कुछ निगला जाता है।
इस स्थिति को टांसिलाइटिस रोग के रूप में सामान्यतया जाना जाता है। इसकी भी दो श्रेणियां हैं। इसके अपेक्षाकृत सामान्य रूप को एक्यूट टांसिलाइटिस' कहते हैं। दवाओं से इसका उपचार हो जाता है लेकिन इसके ज्यादा बिगड़े रूप को 'क्रोनिक टांसिलाइटिस' कहते हैं।
एक्यूट टांसिलाइटिस में एकाएक गिल्टियां सूज जाती हैं। इसमें एंटीबायोटिक दवाएं लेने से यह रोग ठीक हो जाता है। क्रनिक टांसिलाइटिस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर यह गिल्टियां सूजती हैं या काफी दिनों तक लगातार सूजी रह सकती हैं। यह स्थिति प्राय: भारी पड़ती है। आमतौर से इसका समाधान ऑपरेशन होता है। गले के टांसिल्स में बहुत से लोगों में उनकी नाक के पीछे पाए जाने वाले  'एडीनॉएड', टांसिल्स भी सूज जाते हैं। तब इस रोग की तीसरी श्रेणी बन जाती है जिसे  'एडिनॉएडाइटिस टांसिल' कहते हैं।
एडिनॉएडाइटिस टांसिल में तालू ऊपर को चिपक सा जाता है। चेहरा मेंढक सा हो जाता है। रोग और पीड़ा से चेहरा ऐसा लगने लगता है कि मरीज अर्धविक्षिप्त या मंदबुद्धि हो। ऐसे लोग प्राय: मुंह से सांस लेते हैं क्योंकि नाक का रास्ता अवरूद्ध हो चुका होता है।
एक्यूट टांसिलाइटिस की समस्या सर्दी, जुकाम, खांसी से हो सकती है। वायरल बुखार, छोटी माता इत्यादि अनेक संक्रामक रोगों के बैक्टीरिया जब हमला कर दें तो टांसिल फूल सकते हैं। पेट में खराबी भी इस रोग को जन्म दे सकती है। किसी दूषित खानपान से भी यह रोग पैदा हो सकता है। यह रोग लगातार बना रहे या थोड़े-थोड़े अंतराल पर फिर हो जाए तब यह क्रोनिक टांसिलाइटिस में बदल जाता है।
टांसिल सूज जाने पर गला लाल हो जाता है। यह लाली चेहरे पर भी दृष्टिगोचर हो सकती है। बार-बार प्यास लगती है लेकिन पानी तो क्या, थूक लगाने में भी न सिर्फ जबरदस्त पीड़ा होती है अपितु निगलने को जोर लगाना पड़ता है। गले का दर्द गले से चलकर कान तक आ जाता है। बुखार हो जाता है, भूख मर जाती है। किसी काम-काज में मन नहीं लगता। बातचीत भी नहीं हो पाती क्योंकि आवाज निकालने में भी कष्ट होता है। इसके अतिरिक्त बाहर गले के ऊपरी भाग में (जबड़े के नीचे) गिल्टियां (गांठें) सी उभर आती हैं।
ये मुख्य लक्षण एक्यूट टांसिलाइटिस के हैं। क्रोनिक टांसिलाइटिस में बार-बार अवरूद्ध होने की शिकायत होती है। सूखी खांसी भी आती है। शेष लक्षण एक्यूट टांसिलाइटिस वाले हो सकते हैं। एक्यूट टांसिलाइटिस में जरूरी है कि बिना बातचीत किए आराम किया जाए। नमक मिले गर्म पानी से गरारे किए जाएं। बुखार एवं दर्द दूर करने के लिए पैरासीटामोल जैसी दवा ली जा सकती हैं और टैरामाइसीन जैसा कोई एंटीबायोटिक भी। अजवायन या लहसुन सरसों के तेल में जलाकर उस तेल से गले की मालिश भी की जा सकती है।
इसके अतिरिक्त 1 भाग अदरक का रस और तीन भाग शहद मिलाकर गुनगुना कर चाटा जा सकता है। तुलसी, अदरक, लौंग, अजवायन की चाय पीना भी लाभदायक रहता है। इस तरह के उपायों से तुरंत राहत मिलती है फिर भी यह बात अपनी जगह सही है कि कोई एलोपैथिक दवा बिना डॉक्टर की सलाह के नहीं लेनी चाहिए। ऐसे मामलों के जानकार रोग की जांच कर अपने अनुभव के आधार पर दवा और दवा की मात्रा तय करते हैं।
अगर क्रोनिक टांसिलाइटिस की स्थिति उत्पन्न हो गयी है तो बहुत संभव है ईएनटी सर्जरी करानी पड़े। यह सर्जरी अनुभवी सर्जन से ही करानी चाहिए नहीं तो गले का ऑपरेशन जानलेवा साबित हो सकता है। ईएनटी सर्जरी में बढ़ी हुई गिल्टियों का आगे का कुछ भाग काटकर निकाल लिया जाता है। यह आपरेशन कुछ दिन परेशान तो करता है परंतु इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं है।
फर्स्ट एड के रूप में जब गले में दर्द और रूकावट महसूस हो तो गरम नमकीन पानी से गरारे और तुलसी, नमक, लौंग, अजवायन और अदरक की चाय पीनी ही चाहिए। इससे रोग भयावह रूप लेने से बच सकता है। फर्स्ट एड के बाद योग्य चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
यह रोग सर्दी के मौसम में ज्यादा होता है। इसलिए दूषित, ठंडे, ठंडी प्रकृति के खानपान से बचें और सफर में गले को भी ठंडी हवा लगने से बचाएं।

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