- डा. जगदीश सिंह दीक्षित

आज पूरे हिन्दुस्तान में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग चालीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। इस कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई महामारी के कारण जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ उससे और संख्या गरीबों की बढ़ी है। लोगों के रोजगार खतम हुए। उनके सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। बच्चों की पढाई-लिखाई बर्बाद हो गयी। लड़कियों की शादियां रुक गयीं । आए दिन समुद्री तूफान, अतिवृष्ट, अनावृष्टि, बाढ के कारण करोड़ों लोगों का घरबार, फसलें बर्बाद हो जाती हैं। जानवरों एवं जन-धन का इन दैवी आपदाओं के कारण काफी नुकसान होता है। गरीबी और बढती जाती है। सरकारी स्तर पर पर जो भी इसके लिए किया जाता है वह बहुत ही नाकाफी होता है। सरकारी धन जो भी इन आपदाओं से पीड़ित लोगों के ऊपर खर्च किया जाता है उसका बहुत बड़ा हिस्सा बिचौलिया हजम कर जाते हैं। यह यथार्थ है। इन आपदाओं के कारण विकास का कार्य बहुत ही बड़े पैमाने पर प्रभावित होता है। हम भारत के लोग कोई भी बात होती है तो विकसित राष्ट्रों से तुलना करने लगते हैं ।लोग यह भूल जाते हैं कि हिन्दुस्तान अभी विकासशील देशों के श्रेणी में है।                                   दिनांक 16अगस्त 2021 को मैंने आज भी गरीबी क्या होती है अपनी ऑखों से बहुत ही नजदीक से देखा। मन बहुत ही सब कुछ देखकर द्रवित हो गया और बचपन के दिनों की याद आ गई । बचपन में जब मैं किसी कार-परोज में सबसे बाद में डोम, धरकार, मुसहर (वनवासी) जो अब अति दलित वर्ग में आते हैं, जिनके जातीय नामों पर इन बिरादरी के कुछ लोग राजनीतिक दल खड़ा करके अपने परिवार एवं नातेदार-रिश्तेदार, भाई-भतीजावाद को गले लगाकर उनका ही उद्धार करने के लिए बड़े दलों से सौदेबाजी वाली राजनीति कर रहे हैं । वास्तव में जो मैं कहना चाहता हूं कि वह गरीबी जिसे मैंने देखा उसकी आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती है ।



वह कार्यक्रम था ब्रह्मभोज का। बचपन में जब भी कोई शादी या ब्रह्मभोज का होता था तब पूरे गाँव और अपनी बिरादरी के लोग ही पूरा भोजन बनाते थे और खाने के लिए परोसते भी थे। छोटे-छोटे बच्चे बड़े ही शौक से टाटपट्टी, पत्तल-पुरवा पहले बिछाते थे और रखते थे। बच्चे ही पानी पिलाने का भी जग या लोटा लेकर भाग-भाग कर करते थे । यहाँ तक कि जूठे पत्तलो को उठा कर फेंकते भी थे। नाऊ-बारी भी इस काम में अपना पूरा सहयोग देते हुए साफ-'सफाई का काम भी करते थे। जब सबलोग खाना खा लेते थे तब खाना बनाने वाले, परोसने वाले खाकर सबसे बाद में उन लोगों को खाना खिलाते थे जिसका वर्णन मैंने ऊपर किया है। ब्राह्मभोज में तो शुरुआत में पूरी-सब्जी, दही-चीनी पंडित जी और गिरि बाबा लोग खाते थे। सबसे अंत में डोमराजा की बारी आती थी जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जारी है। वह तब तक नहीं खाते हैं जब तक उनका मुँह माँगा अन्न और धन नहीं मिल जाता है। जब वह सबकुछ पा जाते हैं तब पाँच बार जोर-जोर से हाँक लगाते हैं कि-फलाने बाबू क यज्ञ पूरा । तभी यज्ञ पूरी मानी जाती थी ।
हाँ तो जो मैंने 16 अगस्त 2021 को एक ब्रह्मभोज कार्यक्रम में गरीबी को देखा वह ही इस कहानी का असली चेहरा कहिए या भाग कहिए। दलित वर्ग की सैकड़ों बूढे-बच्चे-महिलाएं जिनके तन पर आधे-अधूरे गंदे कपड़े थे। वे लोग कई घंटों से भोजन के इन्तजार में थाली-लोटा-छोटी बाल्टी लिए बैठे हुए थे । परंपरा यह है कि जब तक सबलोग खाना खा नहीं लेते हैं तब तक उनको भोजन नहीं दिया जा सकता है । इस तरह की परंपराओं को अब हमें छोड़ना चाहिए। ठीक है कि सुबह कुछ गरीब वर्ग के लोग आज भी बचे-खुचे खाना लेने के लिए आते हैं। हमलोगों के यहाँ तो आज भी यदि खाना नहीं बचा रहता है तो चावल-दाल-सब्जी ताजा बनवाकर उन्हें दिया जाता है। रात्रि में ही जिन घरों की औरतें खाने नहीं आती हैं तो या तो उनके घर के पुरुष लोग उनके के लिए खाना ले जाते हैं या कहारिन पहुंचाती हैं । ये है परंपराएं।
गरीबी मिटाने के लिए अभी भी बहुत कुछ निस्वार्थ भाव से करने की जरूरत है ।इसके लिए दृढ इच्छा शक्ति होनी चाहिए। सब कुछ राजनीतिक चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है ।
- पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, टीडी कालेज, जौनपुर।


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