कीचड़ में धूल उड़ रही, सागर में तो ठहराव है, फीकी सी चकाचौंध में, लोगों का भटकाव है। मेहनतकश मजदूर, सड़क पर पैदल चल रहे, नौकरी को छोड़कर, पुराने शहर का संबल रहे। अपनी कोई मंजिल नहीं, ना कोई ठिकाना है, दर बदर की ठोकर खाते, आगे बढ़ते जाना है। अपने अधिकारों के प्रति, हमेशा रहे अंजान, भविष्य की चिंता में, कुछ ना समझे नादान।
घर आँगन को त्याग, सुदूर शहर में रहने लगे, फिर से अपनी जगह, असमंजस में पलने लगे। रोजी रोटी की चिंता, जब बरबस सताती है, बीते दिनों की बातें, उनकी जेबें बताती हैं। अपने शहर में बसाओ, सुंदरतम नयी छाँव, अपनों के साथ फरहाद, है प्यारा मेरा गाँव। - अमरजीत कुमार "फरहाद" लेखानगर, नासिक।
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