- डा. जगदीश सिंह दीक्षित
एसो.प्रोफेसर, वाराणसी।

गाँव-देहात में भी कुछ अजब-गजब के चरित्र अभिनेताओं की कमी आज भी नहीं है। गाँवों में ही असली भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। आज भारतीय संस्कृति की जो कुछ भी बची-खुची तस्वीर दिखाई देती है तो वह गांवो में ही। पुराने जमाने के खेलकूद हों या कला, बात-व्यवहार या विकास के कुछ माडल वे सभी आज भी दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलते हैं। महात्मा गाँधी जी कहते थे कि-जिस दिन हिन्दुस्तान के गाँव समाप्त हो जायेंगे उस दिन भारत समाप्त हो जाएगा ।इसके पीछे उनका भाव यही था कि भारतीय संस्कृति से ही हिन्दुस्तान की रक्षा हो सकती है।  

  आज शहरीकरण का खामियाजा हिन्दुस्तान भुगत रहा है ।गाँव के गाँव शहर में विलीन होते जा रहे हैं। इन गांवों की संस्कृति भी अब खिचड़ी संस्कृति में बदल गयी है। इन गांवों के निवासी न उधर के रह गए हैं न ही इधर के। सबसे अधिक इन गांवों की औरतों की जिन्दगी खस्ताहाल हुई है। इन सबसे बचने के लिए और भारतीय संस्कृति जीवंत रहे हमारे पहले वाले महाविद्यालय श्रीमहंथ रामाश्रय दास पीजी कालेज भुड़कुड़ा के प्राचार्य डा. इन्द्रदेव सिंह जो अब इस दुनिया में नहीं हैं फिर भी उनकी यादें मेरे मन -मस्तिष्क में  सुरक्षित हैं। वे बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए कयी ऐसे कार्य करते थे जो आज भी दूसरों के लिए मिशाल हैं। पहला तो यह कि -वे  बृहस्पतिवार के दिन प्रत्येक घंटे को दस मिनट छोटा कर देते थे और दो बजे से चार बजे तक मुक्ताकाश में सभी छात्रों एवं शिक्षकों को बैठाकर कभी क्विज प्रतियोगिता तो कभी वाद-विवाद कभी आशु भाषण तो कभी किसी भी शिक्षक से किसी भी विषय पर व्याख्यान दिलवाते थे। कभी-कभी तो छात्र-छात्राओं से गीत-गवनही भी कराते थे।

महाविद्यालय एवं इण्टरमीडियट कालेज के जो भी शिक्षक वहाँ निवास करते थे  वर्ष में एक दो -दिन  मेला लगवाते थे। सभी शिक्षकों के परिवार अपने-अपनेघरों से कुछ न कुछ बना कर लाते थे और अपनी-अपनी दुकान लगाकर सामानों की बिक्री करते थे। छोटे-छोटेबच्चे और छात्रावास में रहने  वाले बच्चे इस छोटी सी सुन्दर सी बाजार में घूम-फिरकर झूम-झूमकर खूब आनंद लेते थे।
उनका अपना शगल था ।वे वर्ष भर कुछ न कुछ निर्माण कार्य कराया करते थे। चार-छह मिस्त्री और 5-10 मजदूर उसमें लगे रहते थे। जब कभी मैं उनके पास  बैठकर बात करता कि -सरजी क्यों इतना काम कराते रहते हैं तो -वे कहते जगदीश बाबू ये गरीब लोग हैं। इनसे इनके परिवार का भरण-पोषण होता है। दूसरे जब महाविद्यालय के किसी खाते में पैसा अधिक पड़ा रहेगा तो उस पर प्रबन्धन की दृष्टि पड़ने लगती है और यही झगड़े का कारण बनती है। कितनी ऊँची और अच्छी सोच थी।
वर्ष में एक-दो बार क्षेत्र के कुछ गणमान्य लोगों को बुलाकर निश्चित रूप से बाटी-चोखा का कार्यक्रम रखते थे। और भी बहुत यादगार कार्यक्रमों का भी आयोजन किया करते थे, जिसमें से एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम था भारतीय संस्कृति का संरक्षण। जिसमें पूरे क्षेत्र से टीमें आती थीं। गायकी, प्रहसन करने वालों की टीम हुआ करतीं थीं। पूरा गाँव-देहात भारी संख्या में जुटता था और खूब आनंद उठाया करता था।

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