धरती पूछ रही हैं हमसे
कब मेरा ऋण चुकाओगे,
दिया मां का सा आंचल तुम्हें
और कितना मुझे रुलाओगे।
दिए तुमको सब साधन
ओर मुझको कितना उजाड़ोगे ,
अपने विकास की खातिर
ओर कब तक मुझे सताओगे।
बाग बगीचे सब उजाड़ दिए
क्या सघन वन भी उजाडो़गे,
करके मेरे श्रृंगार का दोहन
ओर कब तक शहर बसाओगे।
विकास के नाम पर स्वयं को
ओर कितना मुर्ख बनाओगे,
वायु ना जल, ना जब कोई साधन होगा
क्या ऐसे में स्वयं सुरक्षित रह पाओगे।
प्रकृति सिसक रही है दर्द से
ओर मुझे कितना ध्वस्त करोगे,
जिद छोड़ो अब ठहर भी जाओ,
वरना सांसों का मूल्य चुकाओगे।
पूजा चौधरी एडवोकेट
अति सुन्दर रचना
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