‘सिनेमा से सम्वाद’ फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता मनमोहन चड्ढा की दूसरी किताब है। यह किताब, किसी एक विषय पर लिखी गई मुकम्मल किताब नहीं है, बल्कि इसमें उनके सिनेमा से जुड़े अलग-अलग आठ लेख संकलित हैं। लेखों का मिज़ाज भी अलहदा है। पांच लेख भारतीय सिनेमा से संबंधित हैं, तो तीन दीगर लेखों में उन्होंने जापानी फिल्मकार यासुजिरो ओजू, फ्रांसिसी डायरेक्टर फ्रांस्वा त्रुफ़ो और फिल्म समीक्षक ऑंद्रे बाजॉं के काम पर अपनी कलम चलाई है। ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास’ जैसी पुरस्कार विजेता किताब के लेखक की इस किताब को पढ़कर ये अहसास होता है कि बिना किसी खास तैयारी और योजना के उन्होंने अपने पुराने काम को नये स्वरूप में पेश कर दिया है। लेखों में कई बातों का रेपिटिशन और बिना किसी तारतम्य के दूसरी बातों या व्यक्तित्व का बीच-बीच में जिक्र, पढ़ने के प्रवाह को बाधित करता है। मिसाल के तौर पर ‘जापानी फिल्मकार यासुजिरो ओजू’ अध्याय में बिना किसी परिप्रेक्ष्य के अकीरा कुरोसावा और उनकी प्रसिद्ध फिल्म ‘रशोमन’ बीच में आ जाती है, तो ‘महान फिल्म समीक्षक ऑंद्रे बाजॉं’ अध्याय की शुरुआत वे हिंदी सिनेमा से करते हैं और बाद में सीधे ऑंद्रे बाजॉं पर पहुंच जाते हैं। ऑंद्रे बाजॉं पर बात करते-करते इतालवी फिल्म ‘बाइसाइकिल थीव्स’ और अमरीकी फिल्म ‘सिटीजन केन’ का रिव्यू कर देते हैं। ‘हिंदी फिल्मों की प्रगतिशील लहर’ आलेख में लेखक मनमोहन चड्ढा ने उन फिल्मों और निर्देशकों के काम पर बात की है, जिनमें प्रगतिशील और जनवादी मूल्य मिलते हैं। लेकिन गोविंद निहलानी, बासु भट्टाचार्य, मणि कौल, कुमार शाहनी, सईद अख्तर मिर्जा, केतन मेहता और सई परांजपे जैसे बेहतरीन निर्देशक और उनकी फिल्मों को नज़रअंदाज करना चौंकाता है। ‘क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा’ अध्याय में लेखक ने मलयालम फिल्मों के निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन, कन्नड़ के गिरीश कासरवल्ली, असमिया के जहानु बरुआ, बांग्ला की अपर्णा सेन और मराठी के अमोल पालेकर की कुछ चर्चित फिल्मों का विश्लेषण किया है। इस मायने में यह लेख अधूरा है कि इसमें बांग्ला फिल्मों के एक और बेहतरीन निर्देशक ऋत्विक घटक का न होना। किताब में ‘पाथेर पांचाली’ : उपन्यास और फिल्म’ और ‘सिनेमा के अनाम कोशकार’ दोनों ही शोधपरक आलेख हैं। जहां ‘पाथेर पांचाली’ : उपन्यास और फिल्म’ लेख में मनमोहन चड्ढा ने बांग्ला भाषा के लेखक विभूतिभूषण बैनर्जी के साल 1928 में लिखे उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ और सत्यजीत राय की इसी नाम से साल 1955 में बनी फिल्म का तुलनात्मक अध्ययन किया है, तो ‘सिनेमा के अनाम कोशकार’ में उन्होंने उन शख्सियतों के अनोखे काम को रेखांकित किया है, जिनकी वजह से हिंदी फिल्मों का इतिहास, उनका गीत-संगीत संरक्षित है। इन शख्सियतों में सरदार हरमंदर सिंह ‘हमराज’, बागेश्वर झा, बी. डी. गर्ग, फिरोज रंगूनवाला, वीरचंद धरमसी, डी.पी. धारप, वी.ए.के.रंगाराव और अरुण खोपकर प्रमुख हैं। एक अहम बात और, किताब के कवरपेज पर नेशनल फिल्म आर्काइव के संस्थापक निदेशक पी. के. नायर, फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान के प्रोफेसर सतीश बहादुर, सिने-अध्येता एवं आलोचक श्रीराम ताम्रकर के चित्र हैं, जिन्हें देखकर ये लगता है कि किताब में इन पर भी विस्तृत आलेख होंगे। लेकिन भारतीय सिनेमा के संरक्षण और संवर्धन में विशेष काम करने वाली इन बेमिसाल हस्तियों पर किताब में कोई मुकम्मल आलेख नहीं है। ‘सिनेमा के अनाम कोशकार’ अध्याय में दीगर लोगों के साथ इनका मुख़्तसर सा तआरुफ़ भर है। एक मायने में कहें, तो किताब ‘सिनेमा से सम्वाद’ जरूर करती है, लेकिन अधूरा। किताब पूरी पढ़कर भी, पाठक प्यासे ही रह जाते हैं। बावजूद इसके पाठकों को यह कमियां इसलिए नहीं ख़लेंगी कि एक तो किताब का दाम बेहद किफ़ायती है, तो दूसरी चीज किताब में जो ख़ास मालूमात हैं, वे उनके सिनेमाई इल्म में इजाफ़ा करती हैं।
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