कभी हुआ सूखे का और कभी बाढ़ का।पहला दिन मेरे आषाढ का।।
कवि नईम का यह नवगीत आज के मानसून पर सटीक बैठता है। जब से जलवायु में परिवर्तन होने लगा है। पर्यावरण बिगड़ा है। मौसम का कोई ठिकाना नहीं रहा। समय पर बरसात ना होना। समय के पूर्व बरसात होने लगना। बंगाल की खाड़ी में तूफान आ जाना। अरब सागर में आए दिन विक्षोभ बन जाना। कभी पंद्रह जून से पहले पानी बरसाने लगना। कभी बरसात भर बादलों का रुठ जाना। गर्मी में अधिक गर्मी पडना सर्दियों में बर्फ गिरना और पानी बरसना अब आम बात हो गई है।
मांगे बारिधि देहिं जल रामचन्द्र के राज। तुलसीदास की यह पंक्तियां बेमानी हो गई हैं! जब जरूरत होती है। पानी नहीं बरसता। जब जरूरत नहीं होती है बादल फट जाते हैं। गांव से लेकर महानगर तक समुद्र बन जाते हैं। किसान बादलों की राह तकते रह जाते हैं और बादल आते ही नहीं। पानी नहीं बरसता। भारतीय कृषि मानसून का जुआ तब भी कही जाती थी और आज भी कहीं जाती है। हम चीन और अमेरिका की तरह सिचाई में आत्म निर्भर नहीं हो पाए हैं। मानसून को लेकर सदियों से इंसान चिंतित रहा है । सूखा पड़ेगा कि पानी बरसेगा इसको लेकर ज्योतिषियों वैज्ञानिकों द्वारा शोध किए जाते रहे हैं। भाव, मीच और पानी। ब्रह्मा भी ना जानी।। ऐसी कहावतें लोक में प्रचलित हैं। प्राचीनकाल से ही सिकंदर, अरस्तु, वास्कोडिगामा और डमंड हेली एक्स समेत कई अनुसंधानकर्ताओं ने मानसूनी हवाओं के बारे में विस्तार से लिखा है। अब तो अत्याधुनिक कृत्रिम उपग्रह भी मानसून का अपलक अध्ययन कर रहे हैं और सटीक भविष्यवाणी करते हैं जिससे हम सचेत हो जाते हैं। हाल ही में भयंकर तूफानों की सूचना हमारे मौसम विज्ञानियों ने हो उपग्रह के माध्यम से कर दी थी। किंतु समय पर मानसून आना या आंधी तूफान को नियंत्रित कर पाना अभी भी हमारे वैज्ञानिकों के बस में नहीं है। चीन ने थोड़ी सफलता प्राप्त की है कि मौसम को नियंत्रित कर ले किंतु अब इसके दुष्परिणाम सामने आए हैं। अगर समय पर मानसून आए बादल बरसे। अतिवृष्टि ना हो तो हमारा भी देश खुशहाल हो सकता है। सिंचाई और भूमिगत सिंचाई के साधन विकसित तो हुए हैं किंतु इससे जमीन के नीचे का पानी सूख रहा है। मानसून विश्वव्यापी नहीं होता। उसमें दुनिया पर एक साथ छा जाने स्थिति नहीं होती है। मानसूनी हलचल तो उष्णकटिबंध में पड़ने वाले कुछ देशों में ही दिखाई देती है। ये हैं उत्तरी गोलार्द्ध में पड़ने वाले भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी चीन, फिलिपींस और अफ्रीका का विषुवत रेखा पर पड़ने वाला क्षेत्र। दक्षिण गोलार्ध में पड़ने वाले देश मसलन दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्से, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया के कुछ भू भाग और अफ्रीका इनमें मानसून इतना ज्यादा सक्रिय नहीं रहता । मौसम वैज्ञानिक मानसून को इस तरह परिभाषित करते हैं कि वे ऐसी सामयिक हवाएं हैं जो हर साल जिनकी दिशाओं में दो बार उलट-पलट होनी ही है। उत्तर पूर्व और दक्षिण पश्चिम में मानसूनी हवाओं की दिशाओं में बदलाव वैज्ञानिक भाषा में कोरिओलिक बल के चलते होता है। यह बल गतिशील पिंडों में बदलाव वैज्ञानिक भाषा में कोरिओलिक बल के चलते होता है। यह बल गतिशील पिंडों पर असर डालता है। हमारी पृथ्वी भी गतिशील पिंड है जिसकी दो गतियां हैं दैनिक गति और वार्षिक गति। नतीजतन, उत्तरी गोलार्द्ध में मानसूनी हवाएं दाई ओर मुड़ जाती हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में बाई ओर। वायुगति के इस परिवर्तन को खोज पहले-पहल फेरल नामक वैज्ञानिक ने की थी। इसीलिए इस नियम को फेरल का नियम कहते हैं। मानसून का जन्म विशुद्ध जलवायु विज्ञान की घटना है। यह सात समुद्रों के उस पार से नहीं आता बल्कि हिंद महासागर से इसका जन्म होता है। आगे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से भी ये मानसूनी हवाएं नमी ग्रहण करती हैं। मानसून का मतलब वर्षा ऋतु ही होता है। यानी क्षेत्रों और प्रदेशों में ऋतु बदलते ही हवा की प्रकृति और दिशा बदल जाती है, वे सारे प्रदेश मानसूनी जलवायु के प्रदेश कहे जाते हैं । भारत देश में भूमि स्थल से जल की ओर यानी भारत से हर महासागर की ओर हवाएं चलती हैं। और गर्मियों में ठीक इसके विपरीत यानी हिंद महासागर से भारत को और ये हवाएं ऋतु के अनुसार बहती हैं। इसीलिए मानसूनी हवाएं कहलाई। भारत के लोक कवि घाघ की कहावतें भी मौसम विज्ञान को परिभाषित करती हैं। जब हमारे पास ना तो कृतिम उपग्रह थे और ना मौसम वैज्ञानिक तब हम मौसम की जानकारी प्राप्त करने के लिए कुछ उपाय अपनाते थे। प्राचीन काल को लोग अध्ययन करते थे कि मानसून की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे होती है। सबसे पहला मत पुराना है। जिसे जलवायु विज्ञान में "क्लासिकल स्कूल" कहते है। पुराने जमाने में न तो अच्छे किस्म के अत्याधुनिक यंत्रों का अविष्कार हुआ था और न ही विज्ञान हो इतना विकसित था। अतीत के अध्ययन और अनुभव के नतीजों के बतौर मानसून को ताप रहित इवाएं माना गया। जब सूर्य दक्षिणायन में लंबवत चमकता है। तब अपने यहां जाड़े का मौसम रहता है । उसी समय दक्षिण भारत का तापमान अधिक रहता है और हिंद महासागर में कम तापमान की वजह से अधिक दवाव का क्षेत्र बन जाता है। हम जान चुके हैं कि प्रकृति का कठोर नियम है कि अधिक दबाव से हवाएं कम दवाव की ओर चलती हैं।ये स्थानीय होती हैं और इन्हें व्यापारिक हवाएं भी कहते हैं। लेकिन जून यानी गर्मियों में इसका उल्टा होता है इन दिनों सूर्य उत्तरायण यानी कर्क रेखा पर लंबवत चमकता है। यही वजह है कि उत्तरी भारत समेत उत्तर पश्चिमी भारत तपने लगता है और इसी कारण सूर्य के लंबवत चमकने पर वायु दबाव की सभी पेटियां पांच अंश या अधिक उत्तर की ओर व मकर रेखा पर दक्षिणायन में सूर्य के चमकने पर पेटियां पांच अंश या अधिक उत्तर को ओर व मकर रेखा पर दक्षिणायन में सूर्य के चमकने पर पेटियां दक्षिणी गोलार्द्ध में खिसक जाती हैं। इसके चलते जून जुलाई के महीनों में सूर्य भारत के मध्य भाग से गुजरती कटिबंधीय सोपांत (इंटरट्रापिकल कनवरजेंस) तक खिसक कर उत्तरी भारत के ऊपर आ जाता है। नतीजतन इस सीमांत के मध्य भाग में चलने वाली, भूमध्यरेखीय पछुआ हवाएं भी भारत तक पहुंचने लगती हैं। चूकि ये हवाएं समुद्र से आती हैं, सौ नमीयुक्त होने के कारण भारत में पहुंचकर वर्षा करती हैं। इस विचारधारा के समर्थकों की दलील है कि भारत में सर्दी के मौसम में उत्तरी व्यापारिक हवाएं चलती हैं और ग्रीष्म ऋतु में यहां विषवत रेखीय पछुआ हवाएं चलती हैं। आधुनिक विचारधारा मानसून की तीसरी स्थिति मानी जाती है। इस विचारधारा के समर्थक एसटी मोन,एस, रत्ला, रमण पार्थ सारथी और रामनाथन जैसे मशहूर मौसम विशेषज्ञ हैं। इनको मान्यता है कि भारतीय मानसून दक्षिणी गोलार्ध में बहने वाली व्यापारकि हवाएँ है, जो जेट वायुधारा के विक्षोभ से नियंत्रित होती है। हिमालय के ऊपर वायुमंडल की ऊपरी परत में यह वायुधारा बहती है। हिमालय ने ही भारत को रेगिस्तान होने से बचा लिया है। यदि वे अडिग अचल नहीं रह ता तो मानसून की भरपूर वर्षा नहीं हो पाती। हिमालय भौतिक अवरोध को दीवार ही नहीं खड़ी करता, बल्कि दो भिन्न जलवायु वाले भू भाग को अलग-अलग भी रखता है। इसलिए कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास से लेकर दिनकर तक ने और आज के कवियों में हिमालय की वंदना बेवजह नहीं की है- साकार, दिव्य, गौरव विराट, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल। मेरी जननी के हिम किरीट, मेरे भारत के दिव्य भाल। मेरे नगपति, मेरे विशाल।।
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