चेहरा बनाने या चेहरा बचाने की कवायद !

- पश्चिम बंगाल में हुई हार से पैदा हुई रार

- भाजपा का रोना, किसान और कोरोना

 

धीरज ढिल्लों


भाजपा में लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से लखनऊ की दौड़ यूं नहीं हो रही, और 2014 के बाद पहली बार किसी चुनाव के लिए चेहरे पर चर्चा भी। दिल्ली से लखनऊ और लखनऊ से दिल्ली की दौड़ तो अधिकारिक है, इसलिए दिख भी रही है। इसके अलावा भी भाजपाईयों कई दौड़ चल रही हैं, पर्दे के पीछे। किसानों को साधने के लिए भी अपने आकाओं की कृपा दृष्टि बनाए रखने के लिए भी। भाजपा के अचानक इतनी ऊथल पुथल भी यूं नहीं हो रही। इसके पीछे कारण है।  पश्चिमी बंगाल में हुई हार ही पार्टी में पैदा हुई रार का सबसे बड़ा कारण है। यूपी में चुनाव सिर पर हैं। कोरोना की दूसरी लहर ने सरकारी दावों की पोल खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अस्पताल के दरवाजे पर ऑक्सीजन की कमी के चलते कितने ही लोगों ने दम तोड़ दिया। ऐसे भी कितने ही घर हैं जिनमें एक से ज्यादा मौतें हुई हैं। केवल उपचार के लिए ही नहीं, शमशान घाट तक सिस्टम कम पड़ गया। सरकार को 2022 के चुनाव में इसका भी हिसाब देना पड़ेगा। 

भाजपा में दिल्ली और लखनऊ के बीच उठ खड़ी हुई रार फिलहाल शांत होती दिख रही है, लेकिन इस रार ने एक संदेश तो दे ही दिया, भाजपा घाटे में आ गई है। यह रार ठीक उसी तरह की रार है जो किसी भी घर के घाटे में आने पर अपना सिर उठाकर खड़ी हो जाती है। काम धंधे ठीक चलते रहें और घर की तरक्की होती रहे तो कोई घर के मुखिया पर उंगली उठाने की नहीं सोचता। लेकिन जैसे ही घर घाटे में जाने लगता है, तमाम सवाल खड़े होने लगते हैं। भाजपा 2012 से एक ही चेहर पर सारे चुनाव लड़ती आ रही है, ऐसा पहली बार हो रहा है जब 2022 में होने वाले यूपी चुनाव के लिए चेहरे की बात हो रही है और पार्टी की ओर से योगी के चेहरे की बात कही भी जा रही है। इसका मतलब साफ है कि स्थितियां बदल रही हैं। सब कुछ 2022 में ही लगा देंगे तो 2024 के लिए क्या बचेगा? 

किसान आंदोलन, जिसके चलते बंगाल में भाजपा सिर देकर चुनाव लड़ने के बाद भी “दीदी” को सरकार बनाने से नहीं रोक सकी, अभी वहीं खड़ा है। पारा 40 पार होने के बाद भी किसान दिल्ली के बार्डरों से हटने को तैयार नहीं है। सरकार किसानों से वार्ता न करके बेशक यह दिखाने के प्रयास में जुटी है कि उसे दिल्ली की दहलीज पर बैठे किसानों की परवाह नहीं है, लेकिन परवाह पूरी है, शायद ही कोई दिन जाता हो जब किसान धाम बन चुके दिल्ली के बार्डरों पर भाजपा का कोई न कोई नुमाइंदा न जाता हो, लेकिन यह आंदोलन अब “सेटिंग” से सुलटने वाला नहीं रह गया है। यह आंदोलन केवल उन किसानों का नहीं है जो बार्डरों पर बैठे हैं, यह आंदोलन अकेले अपने खेत में काम कर रहे किसान का भी है। इसलिए औपचारिक वार्ता ही आंदोलन को किसी निष्कर्ष पर पहुंचा सकती है। और यह भी तय मानिए कि ऐसे ही चलता रहा तो यूपी चुनाव में भाजपा को डेंट पड़ना तय है। वो डेंट कितना होगा यह तो समय ही बताएगा, लेकिन जितना भी होगा, यूपी जैसे सूबे डेंट आना केंद्र की राजनीति को सीधे प्रभावित करने वाला होगा, यह खुद भाजपा और दूसरे सियासी दल भी जानते हैं कि यूपी का चुनाव केंद्र के लिए सेमीफाइनल माना जाता है।  


No comments:

Post a Comment

Popular Posts