स्पष्ट कानून की दरकार
ईलमा अज़ीम 
देश में बालिगों की तर्ज पर नाबालिगों के गंभीर अपराधों को अंजाम देने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस तरह की घटनाएं हमारे समाज में पनप रही विकृतियों की ओर इशारा कर रही है। साथ ही यह भी संकेत कि अब वक्त आ गया है कि किशोर अपराधों पर अंकुश लगाने के लिये सख्त कानूनों के प्रावधान हों। 
इसकी वजह यह है कि किशोरों को अपराध करने के बाद सामान्य जेलों में रखने के बजाय बाल सुधार गृहों में भेज दिया जाता है। लेकिन बाल सुधार गृहों में रहने के दौरान भी ऐसे अपराधी किशोरों में बड़ा बदलाव नजर नहीं आता। अक्सर देखा जाता है कि बाल सुधार गृहों में रहने की सीमित अवधि के बाद कई किशोर फिर अपराधों की दुनिया में उतर जाते हैं। 
समाज विज्ञानियों का मानना है कि किशोर अपराधों को लेकर कानून के अस्पष्ट और लचर होने की वजह से भी दोषियों को दंडित नहीं किया जा सकता। अक्सर कहा जाता है कि नाबालिगों की सजा के मामले में अभियुक्त की उम्र को घटा दिया जाए। दरअसल, बदलते परिवेश में समय से पहले किशोरों में वयस्कों की नकारात्मक प्रवृत्तियां पनपने लगी हैं। जिसके चलते वे बड़ों के जैसे अपराध तो करते हैं। लेकिन उन्हें उस अनुपात में सजा नहीं दी जा सकती। वैसे यह भी हकीकत है कि किशोरों के सामने लंबा भविष्य होता है। 


यदि परिस्थितिवश या मजबूरी में वे कोई अपराध करते हैं तो उन्हें सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए। वैसे भी दंड का अंतिम उद्देश्य व्यक्ति में सुधार ही होता है। इस तथ्य पर भी विचार करने की जरूरत है कि यदि किशोर सजा काटने के बाद भी लगातार अपराध की दुनिया में सक्रिय रहते हैं तो उसके लिये दंड के सख्त प्रावधान होने चाहिए। वहीं, अपराध के मूल में आर्थिक विषमताएं भी हैं, जिसके चलते वे पढ़-लिख नहीं पाते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में तमाम सामाजिक विद्रूपताएं भी किशोर मन में नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं। साथ ही किशोरों को नैतिक शिक्षा का पाठ सही ढंग से न स्कूलों में मिल पा रहा है और न ही घरों में। इस संकट का एक बड़ा पहलू इंटरनेट पर जहरीली व अश्लील सामग्री की प्रचुरता भी है। 
अक्सर किशोरों व वयस्कों के अपराधों के कारण जानने पर पता चला कि उन्होंने इंटरनेट पर अश्लील सामग्री देखने के बाद यौन हिंसा को अंजाम दिया। ऐसे में बच्चों को संस्कार स्कूल और घर के बजाय मोबाइल से मिल रहे हैं। इंटरनेट पर प्रसारित आपत्तिजनक सामग्री को कौन और किस उद्देश्य से डाल रहा है, कहना कठिन है। लेकिन इतना तय है कि सोशल मीडिया व इंटरनेट से जुड़े विभिन्न माध्यमों में परोसी जा रही विषैली सामग्री बाल मन पर बुरा असर डाल रही है। ऐसे में नशा, अश्लीलता और अपराध उन्मुख कार्यक्रम किशोरों को अपराध की गलियों में गुजरने के लिए उकसा रहे हैं। बहरहाल, अब समय आ गया है कि नीति-नियंताओं को विचार करना चाहिए कि हत्या-बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त किशोरों के लिये कैसे कानून बनें।

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