सहयोग और संतुलन: भारत- रूस संबंधों की जटिलताएँ
- ममता कुशवाहा
भारत और रूस के संबंध अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सबसे भरोसेमंद, टिकाऊ और समय की कसौटी पर खरे उतरे साझेदारियों में गिने जाते हैं। शीत युद्ध के दौर से लेकर आज की बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था तक, दोनों देशों ने अपने रिश्तों को रणनीतिक विश्वास, रक्षा सहयोग, वैश्विक मुद्दों पर राजनीतिक समन्वय और ऊर्जा साझेदारी जैसे मजबूत आधारों पर कायम रखा है। हाल ही में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा ने इस साझेदारी की गर्मजोशी और रणनीतिक महत्त्व को एक बार फिर उजागर किया। इस दौरे के दौरान ऊर्जा, रक्षा, परमाणु ऊर्जा और नई तकनीक जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए, जो दर्शाते हैं कि दोनों देश अपने द्विपक्षीय संबंधों को भविष्य में और आधुनिक तथा मजबूत बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
फिर भी, इस सकारात्मक माहौल और साझा इच्छाशक्ति के बावजूद, भारत- रूस संबंध कई संरचनात्मक, भू-राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक परिस्थितियों में आए बदलावों ने इन चुनौतियों को और जटिल बना दिया है। आज जब दुनिया नए शक्ति संतुलन की दिशा में बढ़ रही है, भारत- रूस संबंध भी इन बदलते समीकरणों, दबावों और वैश्विक बदलावों से प्रभावित हो रहे हैं। रक्षा क्षेत्र में निर्भरता, बदलते वैश्विक गठबंधन, रूस- चीन निकटता, पश्चिमी देशों का दबाव और आर्थिक असंतुलन जैसी परिस्थितियाँ इस साझेदारी की स्थिरता के लिए वास्तविक चुनौतियाँ पेश करती हैं।
भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसकी रूस पर दीर्घकालिक रक्षा निर्भरता है। दशकों तक रूस भारत का प्रमुख रक्षा उपकरण आपूर्तिकर्ता रहा है। लड़ाकू विमान, टैंक, पनडुब्बियाँ, मिसाइलें और अन्य उन्नत सैन्य उपकरण भारत को उपलब्ध कराने में रूस की प्रमुख भूमिका रही है। यह ऐतिहासिक संबंध आज भी भारत की सैन्य तैयारी और रणनीतिक क्षमता पर प्रभाव डालता है। लेकिन अब भारत अपनी रक्षा खरीद में विविधता ला रहा है। “आत्मनिर्भर भारत” पहल के तहत भारत घरेलू रक्षा निर्माण को बढ़ावा दे रहा है और साथ ही अमेरिका, फ्रांस, इज़राइल और अन्य देशों से भी अत्याधुनिक तकनीक प्राप्त कर रहा है। इस बदलते परिदृश्य में रूस के लिए चुनौती यह है कि वह केवल हथियार बेचने वाले की भूमिका में न रहे, बल्कि भारत के साथ संयुक्त उत्पादन, तकनीक हस्तांतरण और दीर्घकालिक साझेदारी की दिशा में कदम बढ़ाए। यदि रूस इन बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप खुद को ढालने में असफल रहता है, तो उसकी रक्षा क्षेत्र में भूमिका धीरे-धीरे सीमित हो सकती है।
भारत- रूस संबंधों के लिए दूसरी बड़ी चुनौती रूस और चीन के बीच बढ़ती रणनीतिक निकटता है। मॉस्को और बीजिंग का गहरा होता सहयोग ऐसे समय में विशेष चिंता का विषय है जब भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव बना हुआ है। रूस का चीन के प्रति झुकाव भारत के लिए रणनीतिक अनिश्चितता पैदा करता है। ऐतिहासिक रूप से रूस ने भारत और चीन के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया है, लेकिन यूक्रेन संकट के बाद पश्चिमी प्रतिबंधों ने रूस को चीन की ओर अधिक झुकने के लिए मजबूर किया। मॉस्को और बीजिंग के बीच बढ़ती सैन्य साझेदारी, ऊर्जा समझौते और आर्थिक सहयोग कभी-कभी भारत- रूस समीकरण को जटिल बना सकते हैं। इसलिए भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह इस त्रिकोणीय स्थिति को संतुलन, विवेक और रणनीतिक सोच के साथ संभाले।
तीसरी प्रमुख चुनौती पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका और यूरोपीय संघ का दबाव है, ताकि भारत अपने रूस के साथ संबंध सीमित करे। यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी देश रूस को आर्थिक और कूटनीतिक रूप से अलग-थलग करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में भारत का रूस के साथ घनिष्ठ सहयोग बनाए रखना आसान नहीं है। भारत ने हमेशा स्पष्ट किया है कि उसकी विदेश नीति किसी खेमे या गठबंधन के दबाव में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हितों और रणनीतिक स्वायत्तता के आधार पर संचालित होती है। हालांकि, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ रक्षा, तकनीक, इंडो-पैसिफिक रणनीति और अन्य क्षेत्रों में सहयोग बढ़ने के कारण भारत- रूस संबंधों का संतुलन बनाए रखना एक जटिल कूटनीतिक कार्य बन गया है। इसे संभालना न केवल संतुलन की मांग करता है, बल्कि भारत के हितों की सुरक्षा और विश्वसनीयता सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।
आर्थिक दृष्टि से भी भारत- रूस संबंधों में चुनौतियाँ हैं। भले ही रूस से रियायती दर पर कच्चे तेल की खरीद ने द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाया है, लेकिन यह व्यापार असंतुलित है। भारत रूस से बड़ी मात्रा में तेल, कोयला और उर्वरक आयात करता है, जबकि रूस को भारत से निर्यात सीमित है। यह असंतुलन लंबे समय में आर्थिक स्थिरता और व्यापारिक संबंधों की स्थायित्वता को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा भुगतान प्रणाली, प्रतिबंधों से प्रभावित बैंकिंग चैनल, लॉजिस्टिक समस्याएँ और मुद्रा विनिमय की जटिलताएँ व्यापार को और चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। रूस का भारत में निवेश सीमित है और भारतीय कंपनियों की रूस में मौजूदगी भी कमजोर है। इसलिए फार्मास्यूटिकल्स, कृषि, ऊर्जा, आईटी और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है, जिससे द्विपक्षीय आर्थिक संबंध और मजबूत और टिकाऊ बने।
रूस पर लगे प्रतिबंधों ने उसकी उच्च तकनीकी क्षमता पर भी प्रभाव डाला है। भारत रूस से न केवल हथियार खरीदता है, बल्कि उनकी मरम्मत, स्पेयर पार्ट्स और आधुनिकीकरण पर भी निर्भर रहता है। प्रतिबंधों और युद्ध की परिस्थितियों ने रूस की प्राथमिकताओं को बदल दिया है, जिससे भारत को समय पर आवश्यक तकनीक और उपकरण प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। यह भारत की सैन्य तैयारियों पर असर डाल सकता है, हालांकि यह चुनौती भारत को अपने रक्षा उत्पादन और आत्मनिर्भरता को मजबूत करने का अवसर भी देती है।
वैश्विक स्तर पर भी परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। अमेरिका- चीन प्रतिस्पर्धा, यूक्रेन युद्ध, यूरोप की सुरक्षा चुनौतियाँ और नई आर्थिक साझेदारियों के उभरने से वैश्विक राजनीति के समीकरण बदल रहे हैं। ऐसे माहौल में भारत और रूस दोनों को अपने द्विपक्षीय संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। भारत इंडो-पैसिफिक रणनीति और क्वाड जैसी साझेदारियों के माध्यम से पश्चिमी देशों के साथ अपने सहयोग को मजबूत कर रहा है, वहीं रूस पश्चिम को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानते हुए चीन और अन्य गैर-पश्चिमी देशों के साथ साझेदारी बढ़ा रहा है। इन भिन्न वैश्विक प्राथमिकताओं के कारण कभी-कभी मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए दोनों देशों को संवाद, लचीलापन और साझा दृष्टिकोण के माध्यम से रणनीतिक तालमेल बनाए रखना होगा।
इसके बावजूद ऊर्जा सहयोग, परमाणु ऊर्जा परियोजनाएँ, अंतरिक्ष अनुसंधान, खनिज संसाधन, फार्मास्यूटिकल्स और उभरती तकनीक में संयुक्त निवेश जैसे क्षेत्र भारत- रूस संबंधों की मजबूती का आधार बने हुए हैं। पुतिन की भारत यात्रा ने इन क्षेत्रों में आगे बढ़ने की इच्छा को दोहराया। लेकिन केवल इच्छाशक्ति पर्याप्त नहीं है; इन चुनौतियों का समाधान ठोस नीतिगत कदम, राजनीतिक संवाद और परस्पर समझ से ही संभव है।
भारत-रूस संबंध मजबूत और महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कई चुनौतियों से घिरे हुए हैं। रक्षा निर्भरता, रूस- चीन निकटता, पश्चिमी दबाव, आर्थिक असंतुलन और तकनीकी सीमाएँ, ये सभी ऐसे कारक हैं जिनसे दोनों देशों को मिलकर निपटना होगा। पुतिन की यात्रा ने यह दर्शाया कि दोनों देश इस साझेदारी को महत्व देते हैं, लेकिन आने वाला दशक तय करेगा कि यह संबंध भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का स्तंभ बने रहेंगे या बदलते वैश्विक समीकरणों के चलते सीमित हो जाएंगे।




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