आत्मघाती प्रदूषण
इलमा अज़ीम
दिल्ली में बढ़ता प्रदूषण एक बार फिर दुनिया की नजरों में भारत की राजधानी को शर्मसार कर रहा है। कभी संस्कृति, ऊर्जा और प्रगति की पहचान रही दिल्ली आज धुएं और धूल की चादर में लिपटी दिखाई देती है। हवा में घुला ज़हर इस हद तक बढ़ चुका है कि सांस लेना भी एक जोखिम बन गया है। हाल ही में दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 345 के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया जो “बहुत खराब” से “गंभीर” श्रेणी में आता है।
यह स्थिति न केवल दिल्लीवासियों के स्वास्थ्य के लिए खतरा है बल्कि यह भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार दोनों के लिए गहन चिंतन का विषय भी है। प्रश्न यह है कि क्यों हर वर्ष अक्टूबर-नवंबर में दिल्ली का आसमान धुंधला हो जाता है और जीवन दम घोंटने लगता है। इसका उत्तर जटिल है क्योंकि इसके लिए सरकार, समाज और व्यक्ति सभी जिम्मेदार हैं। दिल्ली की गिनती दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में होना हमारे विकास के मॉडल पर एक गंभीर टिप्पणी है। जहरीली हवा में सांस लेना मुश्किल होने पर श्वसनतंत्र के रोगियों को किस संत्रास से गुजरना पड़ा होगा, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। यह स्थिति अन्य अनेक असाध्य रोगों का भी कारण बनती है।
हम कभी पराली जलाने और कभी पटाखे छोड़ने को इस संकट का कारण बताते हैं, लेकिन वास्तव में प्रदूषण के कारक हमारे तंत्र की नाकामी में हैं, जिसकी वजह से दिल्ली के अधिकांश इलाकों में एक्यूआई तीन सौ पचास का आंकड़ा पार कर गया। दीपावली के बाद हवा का जहरीला बना रहना बेहद गंभीर विषय है। शायद वजह यह भी हो कि लोगों ने कुछ इलाकों में दो दिन दिवाली मनाई।
लेकिन इस सारे प्रकरण में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कवायदें भी निष्फल ही नजर आईं। ग्रैप-2 का लागू होना स्थिति की गंभीरता को ही दर्शाता है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि दिल्ली में सर्दियों की शुरुआत होने पर वायु गुणवत्ता का संकट गहराने लगता है। जो दिल्ली की दिवाली के बाद प्राणवायु को ही दमघोंटू बनाने लगता है। हर साल शीर्ष अदालत की सक्रियता और सरकारी घोषणाओं के बावजूद स्थिति नहीं सुधरती तो यह हमारी आपराधिक लापरवाही की परिणति भी है।





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