लोकलुभावनवाद: लोकतंत्र की राह में छिपा संकट


- ममता कुशवाहा
विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था के बदलते परिदृश्य में लोकलुभावनवाद एक ऐसा शब्द बनकर उभरा है, जिसने लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की दिशा और दशा को गहराई से प्रभावित किया है। यह न केवल विकास नीतियों को प्रभावित करता है बल्कि दीर्घकालीन स्थिरता और संतुलन पर भी प्रश्नचिह्न खड़े करता है। लोकलुभावनवाद की मूल प्रवृत्ति जनता के तात्कालिक हितों और भावनाओं को भुनाकर राजनीतिक लाभ लेना है। यह प्रवृत्ति हर उस समाज में दिखाई देती है, जहाँ सामाजिक असमानता, बेरोज़गारी, आर्थिक संकट या वैश्विक अनिश्चितताओं का दबाव अधिक होता है। लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब यह लोकलुभावनवाद एक स्थायी राजनीतिक रणनीति का रूप ले लेता है और शासन की प्राथमिकताओं को दीर्घकालीन सुधारों और स्थिर नीतियों से भटकाकर तात्कालिक राहत और वोट बैंक की राजनीति तक सीमित कर देता है।

पिछले कुछ दशकों में दुनिया के अनेक हिस्सों में लोकलुभावन नीतियों का प्रभाव बढ़ा है। यूरोप और अमेरिका में दक्षिणपंथी लोकलुभावन पार्टियाँ और नेता उभरकर सामने आए हैं जिन्होंने प्रवासियों, अल्पसंख्यकों और वैश्वीकरण को निशाना बनाकर आम जनता को अपनी ओर आकर्षित किया। इसी प्रकार, लातिन अमेरिकी देशों में भी वामपंथी और राष्ट्रवादी लोकलुभावन नेता आर्थिक असमानताओं और गरीबी को मुद्दा बनाकर सत्ता तक पहुँचे। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में भी लोकलुभावनवाद की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। मुफ्त योजनाएँ, नकद हस्तांतरण, सब्सिडी और तात्कालिक राहत प्रदान करने वाली नीतियाँ आम जनता को तत्काल लाभ पहुँचाती हैं, लेकिन दीर्घकालीन आर्थिक संरचना को अक्सर कमजोर कर देती हैं।

आर्थिक दृष्टि से लोकलुभावनवाद का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह उत्पादकता, निवेश और रोजगार सृजन के वास्तविक सुधारों से ध्यान हटाकर तात्कालिक उपभोग पर केंद्रित कर देता है। उदाहरणस्वरूप, जब सरकारें जनता को खुश करने के लिए अल्पावधि में बड़े पैमाने पर मुफ्त अनुदान और योजनाएँ लागू करती हैं, तो राजकोषीय घाटा बढ़ता है और मुद्रास्फीति का दबाव भी बढ़ सकता है। इससे आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न होती है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्टों में यह चिंता कई बार व्यक्त की गई है कि यदि विकासशील देश दीर्घकालीन उत्पादक निवेश के बजाय लोकलुभावन योजनाओं पर अत्यधिक निर्भर हो जाएँ, तो उनकी अर्थव्यवस्था स्थायी संकट की ओर बढ़ सकती है।

राजनीतिक दृष्टि से भी लोकलुभावनवाद कई समस्याएँ उत्पन्न करता है। यह लोकतंत्र में संस्थागत संतुलन और जवाबदेही की भावना को कमजोर कर देता है। जब नेता केवल बहुसंख्यक भावनाओं को भुनाकर सत्ता में बने रहने का प्रयास करते हैं, तो अल्पसंख्यकों और हाशिये के वर्गों की उपेक्षा होने लगती है। इससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ता है और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास कम होता है। हाल के वर्षों में हम देख रहे हैं कि कई देशों में चुनावी राजनीति ‘हम बनाम वे’ की मानसिकता को और अधिक गहरा कर रही है, जो लोकतंत्र के स्वस्थ भविष्य के लिए खतरा है।

लोकलुभावनवाद का एक और महत्वपूर्ण पहलू वैश्विक व्यवस्था से उसका टकराव है। आज के दौर में कोई भी देश अकेले नहीं चल सकता। आर्थिक सहयोग, व्यापार, जलवायु परिवर्तन और तकनीकी विकास जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होती है। किंतु लोकलुभावन राजनीति अक्सर राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद को बढ़ावा देती है। ‘देश पहले’ की सोच तात्कालिक रूप से जनता को आकर्षित करती है, लेकिन लंबे समय में यह वैश्विक सहयोग और आर्थिक प्रगति को नुकसान पहुँचाती है। उदाहरणस्वरूप, अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति अपनाकर वैश्विक सहयोग की धारा को कमजोर किया था, जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा।

भारत की दृष्टि से लोकलुभावनवाद का प्रश्न और भी गहन हो जाता है। एक तरफ भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है, वहीं दूसरी तरफ यहाँ अब भी गरीबी, बेरोज़गारी और सामाजिक असमानता बड़ी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। ऐसे में लोकलुभावन नीतियाँ आम जनता को तात्कालिक राहत देती हैं और राजनीतिक समर्थन भी अर्जित करती हैं। परंतु यदि यह नीति-निर्माण का स्थायी आधार बन जाए, तो भारत की विकास यात्रा बाधित हो सकती है। उदाहरणस्वरूप, जब राजनीतिक दल चुनावों से पहले मुफ्त बिजली, पानी, गैस या नकद हस्तांतरण जैसी योजनाओं का वादा करते हैं, तो यह जनता को तो तत्काल राहत देता है, लेकिन दीर्घकाल में सरकारी खजाने पर बोझ डालता है और संरचनात्मक सुधारों को पीछे धकेल देता है।

लोकलुभावनवाद का समाधान केवल आलोचना करना नहीं है, बल्कि इसे संतुलित करना है। लोकतंत्र में जनता की अपेक्षाओं को पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, किंतु नीति-निर्माताओं की ज़िम्मेदारी यह है कि वे तात्कालिक राहत के साथ दीर्घकालीन विकास रणनीतियों पर भी ध्यान दें। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन, आधारभूत ढाँचे और तकनीकी नवाचार में निवेश करना ही किसी भी राष्ट्र को स्थायी विकास की ओर ले जाता है। यदि सरकारें केवल वोट बैंक की राजनीति में उलझी रहेंगी, तो न केवल आर्थिक स्थिरता बल्कि सामाजिक सामंजस्य भी खतरे में पड़ सकता है।

आज वैश्विक अनिश्चितता के दौर में लोकलुभावनवाद से और अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। विश्व अर्थव्यवस्था मंदी की आशंका से जूझ रही है, जलवायु परिवर्तन नए संकट पैदा कर रहा है और तकनीकी बदलावों ने श्रम बाजार को अस्थिर बना दिया है। ऐसे समय में यदि सरकारें और राजनीतिक दल केवल लोकप्रियता हासिल करने के लिए अल्पकालिक योजनाओं में व्यस्त हो जाएँ, तो भविष्य की पीढ़ियों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। भारत जैसे देश को तो विशेष रूप से इस खतरे को समझना होगा, क्योंकि यहाँ की विशाल जनसंख्या और विविधतापूर्ण समाज किसी भी असंतुलन से गहरे प्रभावित हो सकते हैं।



 लोकलुभावनवाद लोकतंत्र का स्वाभाविक हिस्सा है क्योंकि यह जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं से जुड़ा है। किंतु जब यह राजनीति और नीतियों पर हावी होने लगे, तो यह विकास की राह में बाधक बन जाता है। इसलिए आवश्यक है कि लोकलुभावनवाद को संतुलित और नियंत्रित ढंग से समझा जाए। तात्कालिक लाभ और दीर्घकालिक स्थिरता के बीच संतुलन बनाना ही किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आज की राजनीति और नीतियों का मूल्यांकन इस कसौटी पर होना चाहिए कि वे केवल लोकप्रियता हासिल करने के लिए बनाई गई हैं या वे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक सशक्त और समृद्ध भविष्य गढ़ने में सक्षम हैं। लोकलुभावनवाद से सावधानी और विवेक के साथ निपटना ही भारत और विश्व के लिए विकास की स्थायी कुंजी हो सकती है।

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