असुरक्षा, आक्रोश के दुश्चक्र में शिक्षक समुदाय


- डीएन यादव
क्या यह महज संयोग है कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के शिक्षक आज एक अजीब सी बेचैनी, वेदना, आक्रोश, असुरक्षा और आक्रामक मनोभाव में जीने के लिए अभिशप्त हो रहे हैं।
शिक्षकों की सेवादशाओं पर हमले हो रहे हैं। भविष्य असुरक्षित होने की आशंका से वे लगातार तनाव और बेचैनी में हैं। माध्यमिक शिक्षकों के सेवा सुरक्षा सम्बन्धी अधिनियमित प्रावधान तो पहले से ही समाप्त किये जा चुके हैं, अब 10-20 साल से कार्यरत प्राथमिक शिक्षकों पर TET करने की बाध्यता आ पड़ी है। ऑफलाइन स्थानान्तरण को लेकर शिक्षक पिछले कई महीनों से दर दर भटक रहे हैं, आज भी मा० मंत्री जी के दरवाजे पर अनुनय विनय कर रहे हैं।

शिक्षकों को अनगिनत गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में इस तरह से संलग्न कर दिया गया है कि पढ़ाने का उनके पास समय ही नहीं बच पा रहा है। तरह तरह के दिवस मनाने और ऑनलाइन सूचनाएं प्रेषित करने में इतना अकादमिक समय लग रहा है कि शिक्षण का मूल उद्देश्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है। कई बार तो ऐसा भी देखने को मिला है कि शिक्षकों को किसी रैलीनुमा कार्यक्रम में भीड़ की बढ़ाने  के लिए उपस्थित होने को केवल मौखिक रूप से कह दिया जाता है। शिक्षक पढ़ाना छोड़कर ऐसे ग़ैर-अकादमिक कार्यक्रमों में भाग लेने को विवश किये जाते हैं।

इतना सब तो हो ही रहा है। ऊपर से कतिपय प्रधानाचार्य, प्रबन्धक और कई अधिकारी भी शिक्षकों का शोषण करने एवं उन्हें अपमानित करने से बाज नहीं आते। सेवा सम्बन्धी छोटे छोटे कार्यों के लिए उन्हें बहुत अधिक परेशान किया जाता है।

ऐसी विषम परिस्थितियों में शिक्षक सतत रूप से मानसिक तनाव में रहने को अभिशप्त हो गए हैं। इतने मानसिक तनाव में कभी कभी वह अपना आपा भी खो बैठते हैं। समाज शिक्षक से अंतहीन धैर्य और संयम की अपेक्षा करता है, जो गलत भी नहीं है। लेकिन, शिक्षक को किन दशाओं में फेंक दिया गया है, इसकी चिंता भी समाज और सरकार को करनी होगी।

गोविंद से भी ऊंचा दर्जा देने वाला समाज आज अपने शिक्षकों की दुर्दशा को देखकर मुस्कराता है। अंदर ही अंदर सन्तुष्ट होता है। निश्चित रूप से इस दशा के लिए शिक्षक समुदाय को भी आत्मचिंतन करना चाहिए कि समाज उसकी दुर्दशा पर खुश क्यों हो रहा है? उसने ऐसा क्या कर रखा है  या किसने उसको इस स्थिति में पहुंच दिया है?

पर, स्थिति जो भी हो, समाज और सरकार को यह याद रखना होगा कि जिस राष्ट्र में शिक्षक का सतत अपमान होगा, उसे आक्रोश, वेदना, असुरक्षा और चिंता में जीने के लिए विवश किया जायेगा, वह राष्ट्र कभी भी उन्नति नहीं कर सकता है और न ही वहाँ के नागरिक सचेत और उन्नत हो सकते हैं। राष्ट्र निर्माताओं का अपमान करके कोई भी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता है।

गहराई से विचार करना होगा कि शिक्षकों को सतत आक्रोश, वेदना, असुरक्षा और चिंता में रखने वाली शक्तियां, नीतियां और परिस्थितियां कौन सी हैं? आज शिक्षक इतना व्यथित और विचलित क्यों है? सीतापुर में हुई हिंसक घटना का समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता है। लेकिन, ऐसी हिंसक घटना को तैयार करने वाली परिस्थितियां क्या है? इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए। दूसरों को धैर्य का पाठ पढ़ाने वाला हेडमास्टर इतना आक्रोशित और हिंसक कैसे हो गया? जनपद के एक ज़िम्मेदार पद पर बैठा शिक्षाधिकारी ऐसे हेडमास्टर को समझाने और उसकी समस्याओं का निस्तारण कर पाने में असफल कैसे रह गया?


प्रश्न यह भी है कि भारतीय परम्परा और समाज जिन्हें गोविंद से ऊपर का दर्जा देते रहे हैं,  उनके साथ विभागीय अधिकारियों का व्यवहार कैसा होना चाहिए?

 क्या शिक्षकों के साथ उनका वैसा ही व्यवहार होना चाहिए, जैसा वे अपने दफ्तर के क्लर्क, चपरासी या ऐसे ही किसी अधीनस्थ के साथ करते हैं?

भारतीय परंपरा और प्राचीन ग्रन्थ तो यह बतलाते हैं कि जब राजा गुरुकुल या आश्रम में प्रवेश करता था तो अपने अस्त्र शस्त्र उतारकर बाहर रख देता था, सारी सेना को बाहर ठहराकर, विनम्र भाव और तपस्वी वेश धारण कर लेता था। गुरुओं के समक्ष बड़ी शालीनता से पेश आता था।

यह बात सही है कि न अब वे गुरु रहे, न वह संस्कृति। लेकिन, उतना न सही, देश, काल, परिस्थिति और लोकतांत्रिक मनोभाव से कुछ न कुछ तो गुरुओं का सम्मान होना ही चाहिए।

याद रखिये कि समाज और सरकार से सम्मानित शिक्षक गौरवान्वित भाव से पढ़ायेगा और शानदार नागरिक तैयार करेगा। उत्पीड़ित, चिंतित, अपमानित, वेदनाग्रस्त और विवश शिक्षक अपने छात्रों में भी यही सब भरेगा और राष्ट्रनिर्माण के महान दायित्व को पूरा  करने में अपेक्षानुसार सफल नहीं हो पायेगा।



आज शिक्षक दुःखी है। शिक्षकों की वेदना को सरकार यदि संवेदनशीलता से सुन ले तो हालात बदल सकते हैं।  शिक्षक संगठनों से सरकार को उदारमन से वार्ता करनी चाहिए। दुर्भाग्य से, ऐसा होता नहीं दिख रहा है। शिक्षक अंदर ही अंदर घुट रहे हैं।
शिक्षक साथियों को यह ध्यान रखना होगा कि यह समय शिक्षकों की परीक्षा का समय है।  उन्हें किसी भी दशा में हिंसक नहीं होना है। किसी भी दशा में धैर्य नहीं खोना है। लोकतांत्रिक तरीके से ही अपना आक्रोश जाहिर करना है। समाज शिक्षकों के व्यवहार और गतिविधियों पर नज़र गड़ाए बैठा है। व्यवहार में ज़रा सी चूक शिक्षक समुदाय को बहुत क्षति पहुंचाएगी।  एकजुट होकर लोकतांत्रिक तरीके से संघर्ष करने वाला बुद्धिजीवी समुदाय एक न एक दिन सफल अवश्य होता है।  शिक्षक समुदाय भी सफल होगा।
(प्रांतीय संरक्षण मंत्री, उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ)

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