जातिवाद, वैचारिक विरोधी और संघ


- उमेश चतुर्वेदी
यह संयोग ही है कि ठीक सौ साल पहले ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, ठीक उसके कुछ ही महीने बाद छब्बीस दिसंबर 1925 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। सौ साल की यात्रा को जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो पता चलता है कि जोर-शोर से शुरू हुआ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन भारत भूमि पर दम तोड़ता नजर आ रहा है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा लगातार आगे बढ़ रही है। सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक मोर्चे पर संघ की वैचारिकी की प्रगति यात्रा जारी है।
एक ही वक्त पर शुरू दोनों वैचारिकी में एक विशेष अंतर रहा। वाम आंदोलन के निशाने पर सदा संघ की विचारधारा और संगठन रहा। संघ के खिलाफ कभी सत्ता के सहयोग से तो कभी किसी और तरीके दुष्प्रचार खूब फैलाया गया। उसी में एक विचार ऐसा है कि संघ मुसलमानों के खिलाफ है। वैचारिक और सामाजिक मोर्चे पर यह भी स्थापित करने की कोशिश की गई कि संघ भारतभूमि से मुस्लिम धर्म का समूल खात्मा चाहता है। लेकिन हकीकत कुछ और है। संघ की प्रतिनिधि सभा के सदस्य और वरिष्ठ कार्यकर्ता इंद्रेश कुमार जी के संयोजन में साल 2002 से ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ नाम का संगठन काम कर रहा है। इसका प्रमुख उद्देश्य इस्लाम मानने वाले भारतीय लोगों के बीच ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना के संदर्भ में भारतीय राष्ट्रीयता के विचार को बढ़ावा देना है। संघ का कोई घोषित या अघोषित उद्देश्य नहीं है कि भारत भूमि मुस्लिम  लोगों से मुक्त हो। संघ का प्रयास है कि भारत के मुसलमानों को लेकर स्थापित छवि बदले और राष्ट्र निर्माण में भी उनकी भूमिका हो।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरू’ जी रचित किताब ‘ब्रंच ऑफ थॉट’ का हवाला देकर अक्सर संघ को मुस्लिम विरोधी और सांप्रदायिक होने का प्रयास किया जाता है। वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवियों को जब भी संघ पर हमला करना होता है, 1966 में प्रकाशित इसी किताब का वे हवाला देते हैं। संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन राव भागवत जी इस बारे में अपनी राय खुलकर जाहिर कर चुके हैं। सात साल पहले सितंबर 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में हुई तीन दिनों की विशेष व्याख्यान माला के आखिरी दिन 20 सितंबर को संघ प्रमुख ने श्रोताओं से आमंत्रित प्रश्नों का जवाब दिया था। उसमें ‘ब्रंच ऑफ थॉट’ को लेकर भी एक प्रश्न पूछा गया था। उस प्रश्न के जवाब में मोहन राव भागवत ने कहा था, ‘रही बात, 'बंच ऑफ थॉट्स' की, तो बातें जो बोली जाती हैं वे परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संदर्भ में बोली जाती हैं। वे शाश्वत नहीं रहतीं।‘ इसी सवाल के जवाब में भागवत जी ने आगे कहा था, "आरएसएस कोई संकीर्ण संगठन नहीं है. समय के साथ हमारे विचार और इनका प्रकटीकरण भी बदलता है।"
संघ प्रमुख मुसलमान समुदाय को लोगों को भी अपना ही मानते हैं। इसी व्याख्यान माला में उन्होंने कहा था कि, ‘हम एक देश की संतान हैं,  भाई-भाई जैसे रहें। इसलिए संघ का अल्पसंख्यक शब्द को लेकर रिज़र्वेशन है। संघ इसको नहीं मानता. सब अपने हैं, दूर गए तो जोड़ना है।‘
संघ को लेकर एक आरोप लगता है कि वह जातिवादी है। विशेषकर संघ विरोधी बुद्धिजीवी कहने से नहीं हिचकते कि संघ में उच्च जातियों का वर्चस्व है। के एस भारती द्वारा संपादित और 1988 में प्रकाशित ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर के सातवें खंड में दिए विवरण के अनुसार महात्मा गांधी 1934 में वर्धा में आयोजित संघ के एक शिविर का दौरा किया था। तब वे बगल में  ही सेवाग्राम आश्रम में ठहरे हुए थे। संघ के शिविर का जिज्ञासावश दौरा करने पहुंचे गांधी जी को यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि गांधीजी को इस बात से और भी आश्चर्य हुआ कि वर्धा शिविर में अस्पृश्यता, जातिगत उपेक्षा या अन्य भेदभावपूर्ण तौर-तरीके बिलकुल नहीं थे। गांधी जी के दौरे वक्त संघ के शिविर में अप्पाजी जोशी थे। इससे गांधी जी बहुत प्रभावित हुए थे।
संघ और गांधी के संबंधों को लेकर भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन गांधी वांग्मय में संग्रहीत तथ्यों से इससे जुड़े वैचारिक कुहासे से भी भी पर्दा उठता है। गांधी वांग्मय के 87वें खंड में मिलता है। इसके अनुसार अप्रैल 1947 में दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में हुई एक प्रार्थना सभा में, गांधीजी ने बताया था कि उन्हें संघ से एक पत्र मिला है, जिसमें इस बात से इनकार किया गया है कि हाल ही में गांधीजी द्वारा अपनी सभाओं में कुरान की आयतों को गीता की आयतों के साथ रखने के विरोध में संघ का कोई हाथ था। गांधीजी ने कहा कि उन्हें इस खंडन के बारे में सुनकर खुशी हुई, और आगे कहा: "कोई भी संगठन जीवन या धर्म की रक्षा नहीं कर सकता जब तक कि वह पूरी तरह से खुले तौर पर काम न करे।" सितंबर 1947 में गांधीजी नई दिल्ली में संघ कार्यकर्ताओं से मिले थे। तब गांधी जी उनसे कहा था कि 'वास्तव में उपयोगी होने के लिए, आत्म-बलिदान के साथ-साथ पवित्र उद्देश्य और सच्चे ज्ञान का भी समावेश होना आवश्यक है।
संघ के जातिवादी होने के सवाल पर विज्ञान भवन के कार्यक्रम में भागवत जी ने कहा था कि अगर भारत में अंतररजातीय विवाहों की गणना किया जाए तो अंतरजातीय विवाह करने वालों में सबसे ज्यादा संख्या संघ के स्वयंसेवकों की होगी। संघ पर वामपंथी लोगों का विरोधी होने का भी आरोप लगता है। लेकिन संघ प्रमुख इसे भी साफ कर चुके हैं। राष्ट्र हित के संदर्भ में वाम विचारधारा पर सवाल उठने जायज हैं। वाम विचारधारा भारतीयता  की धारणा को तार-तार करती है। लेकिन उसे मानने वाले लोगों से संघ कभी घृणा नहीं करता, नहीं विद्वेषभाव रखता है। संघ प्रमुख तो अब बार-बार कहते हैं कि भारत में जो भी हैं, सब अपने हैं। उन्हें अपने साथ जोड़ना है।


संघ ने शताब्दी वर्ष में जो पंच प्रतिष्ठा निर्धारित की है, उसमें तीसरा ‘सामाजिक समरसता’ है। सामाजिक समरसता के संदर्भ में संघ का मानना है कि भारत भूमि में रहने वाले सभी लोग अपने हैं। कुछ भटके हुए हैं, उन्हें अपने साथ जोड़ना है और भारत राष्ट्र को स्वावलंबी और मजबूत बनाना है। यह तभी संभव होगा, जब समूचे भारत का समाज एक होगा।

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