शहरी विकास में जानवरों की उपेक्षा भारी
- योगेंद्र योगी
विकास की भौतिक चकाचौंध ने इनसान को जानवर बनाने में कसर नहीं छोड़ी। इसका खामियाजा जानवर भी भुगत रहे हैं। सहअस्तित्व के बजाय पालतू जानवर सिरदर्द समझे जाने लगे हैं। जानवर चाहे पालतू हों या जंगली, सब पर इनसान की वक्रदृष्टि पड़ चुकी है। जानवर की जान आफत में हैं। सुविधाओं के लिए की गई शहरों की बसावट के दौरान यह सोचा ही नहीं गया कि सदियों मेरे दोस्त मेरे हमदम की तरह साथ निभाने वाले पालतू जानवर कहां रहेंगे। धार्मिक आस्था के नाम पर लकीर के फकीर बने लोगों ने जानवरों का प्राकृतिक आवास छीन कर उन्हें पराश्रित शहरी बना दिया। शहरों में रहने वाले पालतू जानवर प्राकृतिक तौर से जीवित रहने के तौर-तरीके भूल कर पूरी तरह इनसानों पर आश्रित हो गए हैं। इनकी संख्या बढऩे से अब टकराहट की नौबत आ गई है।
देशभर के लोग कैसे कुत्तों के आतंक से डरे हुए हैं। साल 2018 में देशभर में कुत्तों के काटने के 75.7 लाख मामले सामने आए। कोविड के दौर में इसमें गिरावट हुई और 2020 में 47.6 लाख और 2021 में 32.4 लाख मामले आए। लेकिन 2023 से ऐसे मामलों का ग्राफ फिर बढऩा शुरू हुआ। इस साल 30.5 लाख मामले सामने आए और 2024 में यह बढक़र 37.2 लाख पहुंच गया। आंकड़े बताते हैं कि कुत्तों के काटने से रैबीज के कारण होने वाली मौतों का ग्राफ बढ़ा है। वर्ष 2022 में इससे 21 मौतें हुई थीं, लेकिन 2023 में आंकड़ा बढक़र 50 पर पहुंच गया। वर्ष 2024 में इससे 54 लोगों ने दम तोड़ा। महाराष्ट्र में कुत्तों के काटने की सर्वाधिक घटनाएं हुई। महाराष्ट्र में 56538 मामले सामने आए। 53942 मामलों के साथ दूसरे पायदान पर गुजरात और 48931 केसेज के साथ तमिलनाडु था। वहीं कर्नाटक में 39500 मामले और बिहार में 34000 केस सामने आए। दरअसल दिल्ली और राजधानी परियोजना क्षेत्र में ही नहीं कुत्ते सहित अन्य आवारा पशुओं की समस्या देश में सिरदर्द बन गई है। जब कभी अदालत या सरकारी मशीनरी इन पर कार्रवाई करने की कोशिश करती है, तब पशु प्रेमी विरोध पर उतर आते हैं। उनका विरोध भी नाजायज नहीं कहा जा सकता। आवारा जानवरों की समस्या सरकारी तंत्र की देन है। आधे-आधे संसाधनों से ऐसे अभियान हमेशा से विवादों में रहे हैं।
सरकारी तंत्र की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार आवारा पशुओं की रोकथाम में सबसे बड़ी बाधा रही है। विकास के बुनियादी ढांचे में जानवरों का ख्याल ही नहीं रखा गया। भारत दुनिया का सबसे बड़ा पशुधन मालिक है, जिसके पास 535.78 मिलियन पशुधन आबादी है। कुल मवेशी आबादी 192.49 मिलियन (पशुधन जनगणना 2019) है। साल 2019 की गणना के हिसाब से देश में 2.03 करोड़ लावारिस पशु हैं। इनके हमले से हर दिन तीन व्यक्तियों की मौत होती है। पिछले 3 साल में 3800 लोगों ने जान गंवाई। देश के महानगरों में सडक़ दुर्घटनाओं का एक प्रमुख कारण आवारा कुत्ते, गाय और चूहे जैसे जानवर हैं। यह बात अग्रणी टेक-फस्र्ट बीमा प्रदाता कंपनी एको की एको एक्सीडेंट इंडेक्स 2022 रिपोर्ट में सामने आई। रिपोर्ट के अनुसार, देश में सडक़ दुर्घटनाओं का मुख्य कारण जानवर थे, खासकर चेन्नई में जानवरों के कारण सबसे अधिक तीन प्रतिशत से ज्यादा दुर्घटनाएं दर्ज हुई हैं।
इसमें कहा गया है कि दिल्ली और बेंगलुरु में जानवरों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या दो प्रतिशत थी। देश के महानगरों में जानवरों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में कुत्तों के कारण 58.4 प्रतिशत तथा इसके बाद 25.4 प्रतिशत दुर्घटनाएं गायों के कारण हुईं। रिपोर्ट के अनुसार आश्चर्यजनक बात यह है कि चूहों के कारण 11.6 प्रतिशत दुर्घटनाएं हुईं। कंपनी के अनुसार, इस दुर्घटना सूचकांक में बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद और मुंबई सहित मुख्य महानगरों में हुई दुर्घटनाओं का विवरण दिया गया है। इन दुर्घटनाओं में औसत आयु 29.0 वर्ष थी। शाम के समय दुर्घटनाएं सबसे अधिक होती थीं (शाम 4 बजे से रात 8 बजे तक) और 92 प्रतिशत मामलों में दोपहिया वाहन प्रभावित होते थे। आवारा पशुओं के कारण 21 प्रतिशत दुर्घटनाएं होती हैं। भारत में आवारा पशुओं से किसानों को भारी आर्थिक नुकसान होता है। आवारा पशुओं में खासकर गाय, बैल और नीलगाय, खेतों में घुसकर फसलों को खा जाते हैं और रौंदते हैं, जिससे उपज का भारी नुकसान होता है।
अध्ययनों से पता चला है कि गेहूं, धान और मक्का जैसी फसलों को 16 प्रतिशत से 65 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है। दुनिया भर में केवल नीदरलैंड ही एक ऐसा देश है जहां आवारा कुत्ते नहीं मिलेंगे। यहां की सरकार द्वारा जनसंख्या और रेबीज नियंत्रण करने वाले टीके लगाए जाते हैं। नीदरलैंड सरकार ने एक अनूठा नियम लागू किया। किसी भी पालतू पशु की दुकान से खरीदे गए कुत्तों पर वहां की सरकार भारी मात्रा में टैक्स लगती है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी नागरिक इन बेघर पशुओं को गोद लेकर अपनाता है तो उसे आयकर में छूट मिलती है। इस नियम के लागू होते ही लोगों ने अधिक से अधिक बेघर कुत्तों को अपनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे नीदरलैंड की सडक़ों व मोहल्लों से आवारा कुत्तों की संख्या घटते-घटते बिल्कुल शून्य हो गई। दुनिया भर के पशु प्रेमी संगठनों ने इस कार्यक्रम को सबसे सुरक्षित और असरदार माना है।
इस कार्यक्रम से न सिर्फ आवारा कुत्तों की जनसंख्या पर रोक लगती है बल्कि आम नागरिकों को भी इस समस्या से निजात मिलती है। देश की दूसरी बुनियादी समस्याओं की तरह आवारा पशुओं की समस्या से भी भारत त्रस्त है। हर कहीं वोट बैंक की राजनीति हावी है। सरकारी मशीनरी में समस्याओं के समाधान को लेकर जंग लगी हुई है। यह मशीनरी तभी हरकत में आती है, जब कभी अदालतों के निर्देश आते हैं। देश में जब तक आधारभूत ढांचे से संबंधित समस्याओं का समाधान नहीं होगा, तब तक आवारा जानवरों से मुक्ति के अभियान कागजी साबित होंगे।
शहरी विकास की परिभाषा फिर से तय करने की जरूरत है। शहरों को सुनियोजित विकास को लेकर बनाए मास्टर प्लान में पशुओं का भी ख्याल रखना होगा। किसी भी जानवर की प्रजाति को समूल उखाड़ने से दूसरी समस्याएं उत्पन्न होंगी। इससे जैविक चक्र बिगड़ेगा। सवाल यही है आखिर इंसान की गलती की सजा जानवर कब तक और क्यों भुगतेंगे। इसके बावजूद कि भारत की बड़ी आबादी आज भी कृषि पर आधारित है। जानवरों की कृषि, दुग्ध, मांस और चमड़ा जैसे उद्योग में प्रमुख भूमिका है। देश की अर्थव्यवस्था और ईको सिस्टम में पशुओं का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्हें भी सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है। इसके बावजूद इनका सही तरह से पालन-पोषण करने के बजाय इन्हें बोझ मानना किसी भी दृष्टि से देशहित में नहीं है।
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