नाम नहीं नीतियां बदलने से बदलेंगे हालात
- विश्वनाथ सचदेव
शेक्सपियर ने भले ही कह दिया हो कि नाम में क्या रखा है, पर हकीकत तो यही है कि आपका नाम आपके चरित्र को बदलने की क्षमता रखता है। शायद इसी समझ का यह परिणाम है कि हमारी सरकारें नाम बदलने की नीति में विश्वास करती दिख रही हैं। गली- मोहल्लों के नाम बदलने से लेकर शहरों तक के नाम बदलने की देश में जैसे एक प्रतिस्पर्धा-सी चल रही है। कोई भी राज्य इस काम में पीछे नहीं रहना चाहता। राज्य यह मानकर चलते दिख रहे हैं कि नाम बदलने की यह कवायद जादुई असर रखती है। इस प्रवृत्ति का ताज़ा उदाहरण मध्य प्रदेश में दिखा है। वहां रातों-रात बेरोज़गारी समाप्त कर दी गयी है। सरकार ने बाकायदा इस बात की घोषणा की है कि अब प्रदेश में कोई बेरोज़गार नहीं है!
ऐसा नहीं है कि राज्य में सबको रोज़गार मिल गया है। हुआ यह है कि राज्य सरकार को अचानक यह इलहाम हुआ है कि बेरोज़गारी की इस समस्या से निपटने का सबसे कारगर तरीका यह है कि रोजगार की तलाश में सड़कों पर भटकते, नारे लगाते युवाओं का नाम ही बदल दिया जाये। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! इसलिए सरकार ने ऐलान कर दिया है कि अब सरकारी दस्तावेजों में राज्य के बेरोज़गार युवाओं को ‘रोज़गार खोजने वाला युवा’ कहा जायेगा। ऐसे में युवाओं को एक अच्छा-सा नाम भी दे दिया गया है। मध्य प्रदेश के कौशल विकास मंत्री ने यह घोषणा कर दी है कि अब इन युवाओं को ‘आकांक्षी युवा’ कहा जायेगा। शेक्सपियर ने भले ही कुछ भी माना या कहा हो, हमारी सरकार यह मानती है कि बेरोज़गारी शब्द युवाओं का मनोबल गिराता है, इस शब्द का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए। अब युवाओं पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनका मनोबल बना रहेगा। इस निर्णय के परिणाम स्वरूप सरकारी नौकरियों में कार्यरत युवा उच्च पद पाने की आकांक्षा रखेंगे और बेरोज़गार युवा नौकरी की आकांक्षा रखेंगे। बेरोजगारी की समस्या का इससे अच्छा भला और क्या समाधान हो सकता है?
सरकारी आंकड़ों और मान्यता के अनुसार मध्य प्रदेश में ‘आकांक्षी युवाओं’ की संख्या दिसंबर 2024 में 26 लाख थी अब यह बढ़कर 29 लाख हो गयी है। सरकारी आंकड़े यह भी बताते हैं कि सन 2020 से सन 2024 के दौरान राज्य में 27 रोज़गार मेले लगाये गये थे, इनमें तीन लाख युवाओं को रोज़गार के प्रस्ताव मिले थे। अब सरकार यह मान रही है कि बेरोजगारों का नाम बदलने से रोज़गार मिलने की गति में तेजी आयेगी और जल्दी ही बेरोजगारी का खात्मा हो जायेगा। निश्चित रूप से देश के अन्य राज्य भी मध्य प्रदेश से प्रेरणा प्राप्त करेंगे और समस्याओं के समाधान का यह नाम बदलू तरीका अपनाकर देश में एक नई क्रांति का सूत्रपात करने में अपना योगदान देंगे।
राज्य सरकार के इस कदम को सार्थक परिणति तक पहुंचाने के काम को गति देने के लिए जनता के सुझाव भी आने लगे हैं। ऐसे सुझावों में एक सुझाव गरीबों को ‘अर्ध धनवान’ नाम देने का भी है। इसी तरह भिखारियों को ‘सड़क के स्टार्टअप खोजी’ कहकर देश की इस समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है।
शुतुरमुर्ग के बारे में यह कहा जाता है कि संकट आने पर वह अपना सर रेत में छुपा लेता है और मान लेता है कि क्योंकि संकट उसे नहीं दिख रहा, इसलिए वह मिट गया है। कुछ ऐसी ही प्रवृत्ति हमारी सरकारों में दिख रही है। अन्यथा यह कैसे संभव है कि बेरोज़गार को आकांक्षी युवा कहने से उसका संकट मिट जायेगा? किसी भी समस्या का समाधान समस्या की आंख से आंख मिलाकर उसका सामना करने से होता है, न कि यह मान लेने से कि समस्या है ही नहीं। हमें यह मानना ही होगा कि बेरोज़गारी और गरीबी हमारी बहुत बड़ी समस्या है– और चुनौती भी। इस समस्या का समाधान चुनौती को स्वीकार करके ही किया जा सकता है।
अक्सर वक्त की सरकारें लोकलुभावनी नारों से जनता को भरमाने की कोशिश करती हैं, और अक्सर जनता इन नारों के जाल में फंस जाती है। ‘इंडिया शाइनिंग’ से लेकर ‘अच्छे दिन’ तक के नारों के शोर हम सुनते रहे हैं। इस तरह के नारे समय-विशेष की आवश्यकताओं के संदर्भ में कुछ सांत्वना भले ही देते हों, पर अक्सर यह देखा गया है कि सरकारें बदलती स्थितियों के अनुसार अपने वादों और दावों को बदलती रहती हैं और अक्सर उन्हें जनता को भरमाने के अपने उद्देश्य में सफलता भी मिल जाती है। आधी सदी से ज़्यादा समय हो गया है जब देश में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा चला था। तब से लेकर आज तक अलग-अलग दलों की सरकारें आती-जाती रहीं, पर देश की गरीबी नहीं मिटी। आंकड़ों से भले ही गरीबी के कम होने की दुहाई दी जा रही हो, पर यह तथ्य अपने आप में परेशान करने वाला है कि आज देश की 80 करोड़ आबादी, यानी आधी से कहीं ज़्यादा आबादी, पांच किलो अनाज के सहारे जी रही है! उस पर तुर्रा यह कि हमारी सरकार इसे अपनी उपलब्धि के रूप में गिनाती-जताती है!
आज़ादी प्राप्त करने के 78 साल बाद भी यदि देश की 80 करोड़ आबादी को सरकारी सहायता के रूप में मिलने वाले मुफ्त अनाज के सहारे जीना पड़ रहा है तो यह किसी भी सरकार के लिए गर्व की नहीं, चिंता की बात होनी चाहिए, और इसे सरकार की एक उपलब्धि के रूप में गिनाया जा रहा है! हर साल दो करोड़ बेरोज़गारों को रोज़गार देने का वादा करके सत्ता में आने वाली सरकार देश के बेरोज़गारों को ‘आकांक्षी युवा’ का नाम देकर अपने वादों को भुलाने की कोशिश कर रही है, इसे राष्ट्रीय चिंता के रूप में ही स्वीकारा जाना चाहिए।
जिस तरह सुलझाने के लिए पहले समस्या के अस्तित्व को स्वीकारना ज़रूरी होता है, उसी तरह मौजूद स्थितियों को भी स्वीकारना होता है। तभी स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए कुछ सार्थक किया जा सकता है। पर हमारी सरकारें तो जनता की समस्याएं सुलझाने के बजाय जनता को भरमाने की नीति में विश्वास करती हैं। ऐसा नहीं है कि बेहतर स्थितियों के लिए कुछ नहीं हुआ, बहुत कुछ हुआ है, पर जितना कुछ हुआ है उससे कहीं अधिक होना बाकी है। जो किया है, उसका यश सरकारों को मिलना चाहिए, पर जो किया जाना बाकी है उसे स्वीकारना भी सरकार का ही दायित्व है। यह दायित्व बेरोज़गार युवा को आकांक्षी युवा कहने से पूरा नहीं होगा। कुछ ठोस करने की आवश्यकता है।
बेरोज़गारी हमारी समस्या है, गरीबी हमारी समस्या है। यह तथ्य स्वीकारना ही होगा। नये नामों या नये नारों से बात नहीं बनेगी। ‘अच्छे दिन’ को परिभाषित करके उन परिकल्पनाओं को धरती पर उतारना ही होगा। पुराने नारों को भुलाकर नये नारों से भरमाना, संभव है, कुछ तात्कालिक लाभ दे दे, पर किसी इलाहाबाद को प्रयागराज नाम देने से या बेरोज़गार को आकांक्षी कह देने से बात नहीं बनेगी। ‘व्यापम घोटाले’ के बाद संस्था का नाम कर्मचारी चयन बोर्ड कर देने से किसी व्यापम वाली शर्म मिट नहीं जायेगी। युवाओं को नया नाम नहीं, काम चाहिए। महंगाई को ‘कीमतों में विविधता’ और भ्रष्टाचार को ‘नवाचार’ कहना नीति में नहीं, नीयत में खोट का संकेत है।
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