क्या मशीनें धरती का घाव भर सकती हैं?

- नृपेन्द्र अभिषेक नृप
जब धरती की छाती पर मशीनों की सनसनाहट प्रकृति के हृदय की धड़कनों को दबा दे, जब वनों की हरियाली पर कृत्रिम सोल्यूशनों का धुंआ छा जाए, तब यह प्रश्न अनिवार्य हो उठता है- क्या तकनीक वास्तव में उस करुण क्रंदन का प्रत्युत्तर है जो जलवायु न्याय की मांग करता है? आज मानवता एक ऐसे युग के मुहाने पर खड़ी है जहाँ एक ओर विज्ञान अपने चमत्कारों से भविष्य गढ़ने का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर पृथ्वी, जो मां के समान हमें जीवन देती रही, उसके आँचल पर हमने प्रदूषण, शोषण और उपेक्षा के धब्बे छोड़ दिए हैं।
‘क्लाइमेट जस्टिस बनाम क्लाइमेट टेक्नोलॉजी’ की यह बहस कोई साधारण विमर्श नहीं, बल्कि सभ्यता के विवेक और वर्चस्व की उस लड़ाई का प्रतीक है जिसमें ग्लोबल नॉर्थ अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों से बचकर तकनीकी उपायों की आड़ में नए उपनिवेश रच रहा है, जबकि ग्लोबल साउथ अब भी उन आँधियों को झेल रहा है जो उसने कभी बोई ही नहीं थीं।
जलवायु न्याय, या क्लाइमेट जस्टिस, एक नैतिक और राजनीतिक अवधारणा है जो जलवायु परिवर्तन को केवल पर्यावरणीय संकट न मानकर उसे वैश्विक असमानताओं की एक कड़ी मानती है। यह दृष्टिकोण मानता है कि जलवायु संकट का बोझ समान रूप से वितरित नहीं हुआ है, न तो उत्पत्ति के स्तर पर और न ही प्रभाव के स्तर पर। ऐतिहासिक रूप से, ग्लोबल नॉर्थ यानी यूरोप, अमेरिका, जापान जैसे विकसित देश औद्योगिक क्रांति से लेकर अब तक वायुमंडल में सर्वाधिक ग्रीनहाउस गैसें छोड़ते आए हैं। इसके विपरीत, ग्लोबल साउथ जैसे भारत, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के अन्य विकासशील देश, ऐसे हैं जिन्होंने अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन किया है, परन्तु जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों को सबसे अधिक झेला है। यही विसंगति जलवायु न्याय की मूल भावना है।
इस असंतुलन को ठीक करने के लिए ‘क्लाइमेट जस्टिस’ की परिकल्पना न्याय, उत्तरदायित्व और पुनर्वितरण पर आधारित है। इसका तात्पर्य यह है कि जिन राष्ट्रों ने इतिहास में अधिक प्रदूषण किया है, उन्हें आज जिम्मेदारी लेनी चाहिए, न केवल अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने की, बल्कि उन विकासशील देशों की सहायता करने की भी जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। इसमें तकनीकी सहायता, वित्तीय सहायता और जलवायु अनुकूलन के उपाय शामिल हैं। लेकिन समस्या यहीं समाप्त नहीं होती।
जब ग्लोबल नॉर्थ तकनीकी समाधानों की बात करता है, जैसे कि कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी या सोलर जियोइंजीनियरिंग तो यह एक नई बहस को जन्म देता है। क्या यह वास्तव में समस्या का समाधान है या केवल एक और तकनीकी भ्रम है जो मूल कारणों से ध्यान भटका देता है? क्या यह जलवायु संकट की वास्तविक नैतिक और ऐतिहासिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने का एक नया उपनिवेशवादी तरीका नहीं है?
कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी, जिसमें उद्योगों या वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को खींच कर ज़मीन के भीतर दफना दिया जाता है, सुनने में आकर्षक लग सकती है। परन्तु यह तकनीक अभी तक व्यावसायिक रूप से सक्षम नहीं हो सकी है और इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर भी संशय बना हुआ है। अधिकांश CCS प्रोजेक्ट्स या तो असफल रहे हैं, या फिर इतने महंगे हैं कि इन्हें बड़े पैमाने पर लागू करना व्यावहारिक नहीं दिखता। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस तकनीक के पीछे छिपा हुआ भाव यह है कि हम अभी भी जीवाश्म ईंधनों का उपयोग करते रह सकते हैं, क्योंकि हमारे पास “वैकल्पिक उपाय” हैं। यह न केवल एक भ्रम है, बल्कि नैतिक रूप से भी गलत है, क्योंकि यह जलवायु न्याय की भावना को नकारता है।


सोलर जियोइंजीनियरिंग का विचार तो और भी अधिक विवादास्पद है। इस तकनीक में पृथ्वी की सतह पर आने वाली सौर ऊर्जा को नियंत्रित करने के लिए कृत्रिम उपाय किए जाते हैं, जैसे कि स्ट्रैटोस्फीयर में सल्फर डाइऑक्साइड के कण छोड़ना ताकि सूरज की रोशनी को परावर्तित किया जा सके। यद्यपि वैज्ञानिकों ने इसकी कुछ प्रयोगशालाओं में सफलता का दावा किया है, परन्तु इसके दीर्घकालिक और वैश्विक प्रभावों के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है। अगर यह प्रयोग असफल हो जाए, तो इसका परिणाम वैश्विक मौसम प्रणाली पर भयानक प्रभाव डाल सकता है जिसमेंबाढ़, सूखा, मानसून की विफलता आदि की संभावना है।
अब यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि ऐसी तकनीकें किसके हित में हैं? क्या यह तकनीकें केवल उन राष्ट्रों को सशक्त नहीं करतीं जो पहले से ही अधिक संसाधन, तकनीकी प्रभुत्व और वैश्विक संस्थाओं पर प्रभाव रखते हैं? उदाहरण के लिए, यदि अमेरिका या चीन सोलर जियोइंजीनियरिंग का प्रयोग करते हैं और उसके परिणामस्वरूप भारत या अफ्रीका में सूखा पड़ता है, तो कौन जिम्मेदार होगा? जलवायु परिवर्तन को एक वैश्विक ‘कॉमन’ मानने की आवश्यकता है, न कि एक प्रयोगशाला जहां कुछ शक्तिशाली देश अपने हितों के लिए मौसम और प्रकृति के साथ खिलवाड़ करें।
वास्तव में, जलवायु तकनीकों की यह प्रवृत्ति एक नई तरह की उपनिवेशवादी मानसिकता को जन्म देती है- ‘ग्रीन कॉलोनियलिज़्म’। पहले उपनिवेशवादी देशों ने वैश्विक दक्षिण से संसाधन लूटे, आज वे अपने प्रदूषण की भरपाई के नाम पर उन्हीं देशों में “कार्बन ऑफसेट प्रोजेक्ट्स” चला रहे हैं। विशाल भूभागों को “कार्बन सिंक” बनाने के लिए किसानों और आदिवासियों की भूमि छीनी जा रही है, उन्हें जंगलों की रक्षा करने का ठेका दिया जा रहा है जबकि उन जंगलों के ‘मालिक’ अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां बन चुकी हैं। यह न तो न्याय है, न विज्ञान, यह एक पॉलिश किया हुआ शोषण है, जिसे अब पर्यावरणीय नैतिकता का लबादा पहनाया जा रहा है।
इस सबके बीच, जलवायु न्याय की पुकार और भी मुखर होती जा रही है। ग्लोबल साउथ के देश बार-बार यह मांग करते आए हैं कि ‘लॉस एंड डैमेज’ फंड- जिसकी स्थापना COP27 में की गई थी, वास्तविक रूप में अमल में आए। यह फंड उन देशों को मुआवज़ा देने के लिए है जो जलवायु परिवर्तन से हुए नुकसानों से जूझ रहे हैं, जबकि उन्होंने इस संकट में बहुत कम योगदान दिया है। लेकिन अब तक इसमें बहुत कम प्रगति हुई है। तकनीक की आड़ में नैतिक जिम्मेदारी को बार-बार टाल दिया गया है।
अब हमें यह समझना होगा कि प्रकृति केवल एक “समस्या” नहीं है जिसे तकनीकी “सॉल्यूशन” से सुलझाया जा सकता है। यह एक संबंध है मनुष्य और प्रकृति के बीच का, जो सदियों की अवमानना, दोहन और दूरी के बाद अब पुनर्निर्माण की मांग करता है। तकनीक अगर इस संबंध को मजबूत करती है, तो वह उपयोगी है। पर यदि वह इस दूरी को और गहरा करती है, तो वह विनाशकारी है।
भविष्य की जलवायु नीति को केवल विज्ञान और तकनीक की कसौटी पर नहीं, बल्कि नैतिकता, इतिहासबोध और न्याय की दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए। ग्लोबल साउथ को केवल “विकासशील उपभोक्ता” नहीं, बल्कि साझेदार, मार्गदर्शक और पीड़ित मानते हुए उनके अनुभवों, परंपराओं और ज्ञान को नीति-निर्माण में स्थान देना आवश्यक है। जलवायु न्याय का अर्थ है- प्रकृति के साथ न्याय, परंपराओं के साथ न्याय, और उन लोगों के साथ न्याय जिन्होंने इस संकट को पैदा नहीं किया पर उसे झेल रहे हैं।



हम कह सकतें हैं कि तकनीक एक औज़ार हो सकती है, पर वह लक्ष्य नहीं हो सकती। जब तक हम जलवायु संकट को केवल तकनीकी चुनौती मानते रहेंगे, हम उसके वास्तविक समाधान से दूर भागते रहेंगे। हमें यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति की भरपाई करना केवल विज्ञान की सीमा से परे है- यह एक नैतिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की मांग करता है और जब तक यह पुनर्निर्माण नहीं होता, तब तक जलवायु न्याय केवल एक नारा रहेगा, और तकनीकें केवल अस्थायी मरहम। हमें मरहम नहीं, उपचार चाहिए- न्यायपूर्ण, समावेशी और टिकाऊ। यही मानवता और प्रकृति दोनों के भविष्य की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

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