कब होगी जातिगत भेद-भाव की विदाई ?
- विवेकानंद विमल

हम 21वीं सदी में आ चुके हैं, आजादी को पचहत्तर वर्ष से अधिक हो चुके हैं, सबका साथ सबका विकास, बांटोगे तो काटोगे जैसे नारे दिए जा रहे हैं। लेकिन इस देश में जातिगत भेद भाव एक ऐसी सदियों पुरानी समस्या है जो इस कदर जड़ जमा चुकी है कि सारे प्रयासों के बाद भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रही। आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ ही जातीं है, जिससे यही प्रतीत होता है कि इस राष्ट्र में केवल मनुष्य होना काफी नहीं। एक अच्छा जीवन जीने की लिए किसी अच्छी जाति में पैदा होना भी आवश्यक है ।
फिर से एक मामला सामने आया है जहाँ एक कथावाचक का केवल इसलिए अपमान किया गया या उसे कथा करने से रोका गया क्योंकि वह एक विशेष जाति से नहीं आता और इसके बावजूद उस जाति के गाँव में जा कर कथा की। आरोप यह लगाया जा रहा है कि उस व्यक्ति ने जाति छुपाई और ब्राह्मण बन कर कथा करता रहा। अगर इस विषय को सही भी माना जाए तो भी क्या किसी को जाति के नाम पर अपमानित करना या हिंसा करना उचित हो सकता है ?


प्रश्न तो यह भी उठता है कि अगर उसने जाति छुपाई तो उसे जाति क्यों छुपानी पड़ी ? आखिर वह कौन-सी चीज है जिसके कारण व्यक्ति को अपनी जाति छुपानी पड़ती है ? गहराई से देखें तो इसके मध्य में समाज में फैली ऊंच - नीच की वही खाई विद्यमान दिखती है, जो मनुष्य से मनुष्य होने का हक भी छीन लेती है। वास्तव में, यह सिलसिला नया नहीं है। यह प्रकरण भी उसी सोच का हिस्सा है जो कभी किसी को कथा करने से, तो किसी को मूंछ रखने से रोकती है, घोड़ी चढ़ने पर पीटवा देती है, समाज में छुआ-छूत को बढ़ाव देती है और किसी को ऊंच तो किसी को नीच बना देती है।
आश्चर्य होता है कि जिस देश में कबीर जैसे संत कहते है - "जाति न पूछिए साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान", उसी देश में इस आधुनिक युग में भी जाति पूछी जा रही है और केवल पूछी ही नहीं जा रही, उसे यह भी बताया जा रहा है कि जाति के आधार पर वह कौन से कार्य कर सकता है और कौन से नहीं कर सकता है। खास बात यह भी है कि जाति का यह गुमान यहाँ हर किसी के भीतर है। यहाँ केवल ऊंची जाति में ही नहीं अपितु निम्न समझी जाने वाली जातियों में भी एक अलग ही श्रेष्ठता का भाव है। समाज के प्रत्येक तबके को अहंकार है कि वह कुछ अलग है और उनके जैसा कोई भी नहीं। तभी शायद हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि इस समाज में नीची से नीची समझी जाने वाली जाति भी अपने से नीची एक और जाति ढूँढ लेती है। द्विवेदी जी का यह कथन तो वर्षों पुराना है, किन्तु उसकी सच्चाई आज भी जीवित है। जाति का पाठ पढ़ते-पढ़ते हम भूल चुके हैं मनुष्य और मनुष्यता नाम की भी कोई चीज होती है। कोई समाज या जाति अपने आप में श्रेष्ठ बन जाए लेकिन यदि उसके भीतर मानवीय मूल्य व गुण ही न हो तो वह किस बात का श्रेष्ठ मनुष्य होगा ? श्रेष्ठता वक्तव्यों में नहीं अपितु कर्मों, विचारों तथा व्यवहार में दिखनी चाहिए।


      यदि तनिक तर्कशील होकर विचार किया जाए तो मन में यह प्रश्न भी उठता है कि क्या सच में जाति भी गर्व का विषय हो सकती है ! आखिर जो चीज अनचाहे या संयोगवश हमें मिल गई हो उसके लिए क्या गुमान ! मनुष्य चाहे तो अपने अच्छे कर्मों, अपने गुणों पर कुछ हद तक गर्व अनुभव कर सकता है, परन्तु यदि वह भी आवश्यकता से अधिक हो जाए या दूसरों को कष्ट पहुंचाने लगे तो यह ठीक नहीं। ऐसे में जाति जैसी चीज जिसमें मनुष्य का कोई निजी योगदान नहीं होता, उसके लिए ऐसा मिजाज एक सभ्य समाज के लिए डरावना लगता है।
दुख होता है कि लोग जाति के विदाई की बात तो लोग करते हैं, नारे भी देते है लेकिन आज भी हम उसका भूत उतार नहीं पाए है। अगर इतने ज्ञान, आधुनिकता और विकसित होने के बाद भी हम ऐसी रूढ़िवादी मानसिकता के शिकार बने रहते हैं तो यह मानवता के लिए श्राप के समान है। एक सभ्य समाज के रूप में हमें सबको गले लगाते हुए सबके प्रगति की कामना करनी ही चाहिए।

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