जाति का बंधन


न पूछो मुझसे जात मेरी,
मैं मानवता की बात करूँ।
कण-कण में रमता जो चेतन,
उससे निज संवाद करूँ।

किस माटी से जन्म लिया है,
यह प्रश्न नहीं उत्तर का।
जो प्रेम भरे हर मन में ,
वह धर्म बने जीवन का।

सूनी आँखें क्या देख सकेंगी,
भीतर जो दुख जलते हैं।
ऊपर से सब एक समान हैं,
पर भीतर किस्मत पलते हैं।

कभी किसी के हाथों पत्थर,
कभी किसी के शंख रहे।
किसी को मंदिर के भीतर,
किसी को बाहर अंक रहे।

यह बंधन किसने रच डाले,
यह रेखाएँ किसने खींचीं?
जहाँ सभी नर-नारी सम हैं,
वहाँ नफरत किसने सींचीं?

जो तोड़ सके इन दीवारों को,
वही सच्चा ज्ञानी है।
जात-पांत का भ्रम छोड़ो,
मानवता ही सबसे भारी है।

जन्म लिया जो भू पर मैंने,
किसने देखा रक्त-मिलन?
माँ की कोख में कौन बताता,जाति..
वहाँ का प्रथम परिचय बन?

नव शिशु जब मुस्काता है,
क्या वह ब्राह्मण, शूद्र कहाता है?
पर जब वह समाज में आता,
जाति का प्रश्न उठाता है।

कहीं ऊँच बना सिंहासन,
कहीं नीच बना जीवन भार।
एक ही देश, एक ही माटी,
पर अलग-अलग व्यवहार!

कभी तुलसी, कभी कबीर को,
जाति ने रोका, बाँधा था।
पर उनके शब्दों ने तब जाकर,
सच को सच दिखाया था।

“जाति न पूछो साधु की,”
कहते थे संत हमारे।
पर आज भी लोग बाँटते हैं,
नाम-रूप से सारे।

गांव में एक कुआँ होता,
किन्हीं को जल पीना वर्जित।
मंदिर का पट सबके लिए है,
पर भीतर प्रवेश प्रतिबंधित।

शिक्षा, अवसर, मान-सम्मान,
सब पर पहरा है जाति का।
बोलते हैं हम स्वतंत्र हुए,
पर बोझ ढोते हैं अतीत का।

धर्म नहीं यह वर्ण व्यवस्था,
यह तो सत्ता का गहना है।
जिसे बनाकर कुछ लोगों ने,
सदियों तक शोषण सहना है।

अब समय है दीप जलाने का,
हर मन में समता बोने का।
जाति-पांति को तोड़ फेंकने,
नव मानव धर्म चुनने का।

जो प्रेम करे, वो पूज्य बने,
ना कि कुल या नाम धरे।
समता, करुणा, न्याय जहाँ हो,
वहीं सच्चा धर्म फले।
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- आकाश कुमार प्रसाद, औरंगाबाद (बिहार)।

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