अनुकूल बनाने की कला है सहज जीवन
- सत्येंद्र प्रकाश तिवारी
ग्यानपुर, भदोही।
मनुष्य जीवन स्वयं में ही बहुत कांटो भरा है। यहां तक स्वयं नारायण ने भी जब-जब मानवीय अवतार लिया तो समस्त जीवन संघर्षों में बिताया, तो मानव की औकात ही क्या है। ऊपर से वर्तमान जीवनशैली भी इतनी दुष्कर है कि व्यक्ति को आत्मिक सुकून मिलना ही दूभर है। महामानव वो है जो प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुरूप ढालने की क्षमता व महारत रखता है।
विषम परिस्थितियां तो वर्तमान जीवनशैली का अनिवार्य अंग हैं। पुरातन जीवन शैली में व्यक्ति की आवश्कताएं, इच्छाएं अपेक्षाएं सीमित साधनों तक ही सीमित रहती थी, वह अपनी हैसियत अनुसार ही खर्चों का संतुलन व तालमेल बिठा कर रखता था और मस्त जीवन जीता था, जबकि आज के व्यक्ति की धनोपार्जन क्षमता तो निरंतर अधोगति की तरफ जा रही है, परंतु इच्छाओं की अत्यंत अधिकता रहती है। औचित्यताहीन, व्यर्थ के अवांछित, अनावश्यक खर्चों के कारण आर्थिक संतुलन गड़बड़ाया रहता है, उधार एवं ऋण में फंसे रहते हैं। कार्यकुशलता, कर्मठता, इनोवेशन घटती जा रही है, इच्छाएं बढ़ती जा रही हैं तो लाजिमी है कि मनुष्य अर्धविक्षिप्तता का शिकार होता रहता है। आर्थिक पहलू के अतिरिक्त उसके जीवन में रिश्तों की अन्तरंगता, मित्रों की संवदेनशीलता, सामाजिक सौहार्द, सहिष्णुता की भी अधोगति हो रही है।
विपत्ति के या संकटकाल के समय वह नितांत अकेला हो जाता है, कोई अपना दिखाई नहीं देता। यह वर्तमान जीवनशैली की दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है। रिश्ते मात्र औपचारिकता निभाते हैं। संकट काल या विषम हालातों में कन्नी काट लेते हैं। ईश्वरीय आस्था की तो वर्तमान की तथाकथित आधुनिक प्रगतिशील भौतिक, पाश्चात्य अनुकरणीय जीवनशैली में कोई जगह ही नहीं है। संस्कृति, परंपराएं, ईश्वर भक्ति उत्सव व धार्मिक आयोजन तो इतिहास बनकर रह गए हैं। दिवाली, बैसाखी, लोहड़ी, होली, अमावस्या, संक्रांति आदि तो वैलन्टाइन डे, मदर डे, ग्रैन्ड डे, फादर डे यहां तक कि जानवरों के डेज में तबदील हो गए हैं, टी.वी मोबाइल, सोशल साइट्स ने बच्चों से बुजुर्गों तक सभी को मनोरोगी बना डाला है।
परिणामस्वरूप एकाकीपन तो नियति ही बन कर रह गई है। बच्चों की स्कूली शिक्षा अवधि से उन्हें कम्पयूटरीकृत, गुणा, भाग सिखाया जाता है। मूलभूत बेसिक प्रत्ययों की शिक्षा दी ही नहीं जाती, आगे जाकर यही त्रुटियां उन्हें शैक्षणिक अपंगता प्रदान करती हैं। सारा दिन उपकरणीय शिक्षा, टी.वी. मोबाइल, कम्पयूटर से जुड़ाव रहता है। इस नामुराद डिजिटल जीवनशैली ने व्यक्ति को संवेदना शून्य कर अकेला, असहाय, असहज व असमर्थ ही कर डाला है। लबोलुआब यह कि व्यक्ति बचपन से बुढ़ापे तक अस्वाभाविक व असामान्य जीवन शैली अपनाता हुआ प्रतिकूल परिस्थितियों की विषमता आमंत्रित करता रहता है।
बच्चों को व्यावसायिक कुशलता की खातिर बेशक डिजिटल, कम्पयूटरीकृत उपकरणीय शिक्षा दें, परंतु साथ-साथ उन्हें मानव मस्तिष्क जो ईश्वर प्रदत सुपर कम्पयूटर है उसकी सदुपयोगिता का भी अभ्यास डालें। व्यस्क वर्ग स्त्री-पुरुष नियमित दिनचर्या के साथ-साथ उत्सवों, आयोजनों, समारोहों, धार्मिक, सांस्कृतिक व पारंपरिक समूहों में भी शिरकत अवश्य करें, ताकि सामाजिक सौहार्द, सामुदायिक सरोकार, अन्तरंग संवेदनाएं बनी रहें जो विषम हालातों में काम आएं। वानप्रस्थी आयु वर्ग के व्यक्ति धर्म, कर्म, दान-पुण्य, हवन यज्ञ, अनुष्ठानों में शिरकत ज्यादा कर ईश्वरीय वरदहस्त प्राप्त कर जीवन संध्या को सुखद बनाएं। अनावश्यक व अवांछित औचित्यहीन इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीखें।
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