धरती का दोहन रोकें
 इलमा अज़‍ीम 
पिछले  काफी समय से मौसम का अंदाज बिलकुल अलग हो गया है। यह प्रकृति संरक्षण के प्रति लापरवाही का नतीजा ही है। आज हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां से या तो हम जीवन की रक्षा कर सकते हैं या विनाश की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। धरती के साथ जो अत्याचार हो रहा है वह केवल प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का नहीं, बल्कि मनुष्य के अहंकार और उपभोग की अति का परिणाम है।
 वनों की कटाई, नदियों का प्रदूषण, जैव विविधता का क्षरण और जलवायु परिवर्तन ये सभी संकट अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं। 2024 की संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 40 फीसदी भूमि किसी न किसी रूप में बंजर या अनुपजाऊ हो चुकी है। भारत में लगभग 29 फीसदी कृषि भूमि की उत्पादकता में भारी गिरावट आई है। इस भूमि क्षरण का सीधा प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर पड़ा है। भारत के पहाड़ी राज्य विशेषकर हिमाचल प्रदेश इस संकट से गहराई से प्रभावित हो रहे हैं। हिमाचल की भौगोलिक बनावट अत्यंत संवेदनशील है और यहां पर हो रहे पर्यावरणीय बदलाव न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि पूरे उत्तर भारत के जलवायु संतुलन को भी बिगाड़ रहे हैं।


 वर्ष 2024 में हिमाचल में बर्फबारी सामान्य से 32 फीसदी कम हुई, वहीं गर्मियों के दौरान 58 फीसदी अधिक भूस्खलन और अचानक बाढ़ की घटनाएं रिकॉर्ड की गईं। यह असामयिक परिवर्तन दर्शाते हैं कि जलवायु अब हमारे नियंत्रण से बाहर जा रही है। बड़ी संख्या में जंगलों की कटाई, निर्माण कार्यों का अंधाधुंध विस्तार और पर्यटन की बेतरतीब वृद्धि ने हिमालय को खतरनाक स्थिति में ला खड़ा किया है। हमारे गांव, जो कभी प्राकृतिक जीवनशैली के उदाहरण होते थे, अब धीरे-धीरे शहरीकरण की अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। खेतों की जगह अब प्लॉट और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन रहे हैं। 


पारंपरिक जल स्रोत सूख रहे हैं और लोगों का पलायन बढ़ रहा है। यह बदलाव केवल भौगोलिक नहीं है, यह सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संकट भी है। भारत में 2024 में हीटवेव से 150 से अधिक लोगों की जान गई और हिमाचल में जल संकट से प्रभावित गांवों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यदि इन संकेतों को अब भी गंभीरता से नहीं लिया गया तो स्थिति और भयावह हो सकती है। इस संकट को समझने और जनमानस तक पहुंचाने में साहित्य और समाज के जागरूक बुद्धिजीवियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिमाचल के वरिष्ठ साहित्यकार एसआर हरनोट का इस संदर्भ में उल्लेख अत्यंत आवश्यक है। हरनोट का साहित्य न केवल पहाड़ी जीवन की सच्चाइयों को उजागर करता है, बल्कि उसमें पर्यावरणीय चेतना भी गहराई से समाहित है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने भी पर्यावरण विमर्श को सार्वजनिक जीवन में गंभीरता से उठाया है। बहरहाल, समाज को धरती के लिए जागृत होना होगा।

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