भारत में जातिवाद का बढ़ता ख़तरा !

- अंजलि कश्यप
इन दिनों देश में जो माहौल है वो निःसंदेह चिंताजनक स्थिति उत्पन्न करती है। धार्मिक कट्टरता अब धीरे-धीरे जातीय टकराव पर आ गई है। पिछले कुछ समय से भारत न सिर्फ धार्मिक मुद्दों पर बल्कि जातिवाद और भाषावाद की आग में भी झुलस रहा है। नेतागणों को जहां अपनी राजनीति चमकानी है तो वहीं देश का एक बड़ा युवावर्ग आज बेरोजगारी का दंश झेल रहा है। महंगाई, भूख और बढ़ती गरीबी के बीच भारत की राजनीति इनदिनों धर्म और जाति के बीच झूलती दिख रही है। लेकिन क्या इसमें गलती सिर्फ नेताओं की है? मेरा मानना है नहीं।
भारत में धार्मिक विवादों के बीच अब जातिगत टकराव और भाषा को लेकर विवाद भी बढ़ने लगा है। जैसा कि हम वाकिफ है भारत और इसकी विविधताओं का इतिहास आज का नहीं है ये हजारों सालों पुराना इतिहास है। लेकिन ये इतिहास जहां एक तरफ स्वर्णिम है तो वहीं दूसरी तरफ इसका एक बड़ा अध्याय काली स्याही से लिखा गया है। ये वही स्याही है जिससे सालों पहले दलितों की तक़दीर सवर्णों के द्वारा लिखी जाती थी। इतिहास के पन्नों को पलटने पर हमे पता चलता है कि एक दौर वो भी था देश में, जहां समाज में सवर्णों का बोलबाला था। समाज को 4 मुख्य जातियों में विभाजित किया गया था, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ्य और शूद्र... ब्राह्मणों ने समाज को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानकर बाकी जाती के लोगों खासकर शूद्र जिसे हम दलित कहते हैं के साथ शोषण करने लगे। उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लेने से छुआ-छूत तक कई तरह की कुरीतियों को बढ़ावा दिया गया लेकिन जैसे-जैसे समय बीता इसी समाज में कई ऐसे बुद्धिजीवी और समाज सुधारक हुए जिन्होंने इन कुरीतियों के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठाई बल्कि उन्हें समाज से खत्म करने का भी काम किया। फिर चाहे दलित परिवार से आने वाले ज्योतिबा फुले हो या सावित्री बाई फुले या फिर ब्राह्मण परिवार से आने वाले राजा राम मोहन राय हो या स्वामी दयानंद सरस्वती, इन सबने अपने-अपने समय में समाज से भेदभाव मिटाने का, सतीप्रथा, विधवा विवाह, दलितों पर शोषण जैसी कुरीतियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सबको शिक्षा के अधिकार, महिलाओं को शिक्षा के अधिकार के पक्षधर बने और समाज में एक सकारात्मक बदलाव देखने को भी मिला।



लेकिन आज आजादी के 75 साल बाद देश में एक बार फिर जातीय टकराव अपने चरम पर पहुंचता नजर आ रहा है और इसके दो मुख्य कारण है- पहला हर जाति में चरमपंथी जिसे अंग्रेजी में एक्सट्रिमिस्ट कहते हैं उनका होना और दुसरा बदले की भावना, हालांकि ये बदले की भावना भी चरमपंथ का ही नतीजा है।उदारहण के लिए शुरुआत ब्राह्मणों से करुं तो कई ऐसे चरमपंथी लोग हैं जिनको अभी भी लगता है ये धर्म के ठेकेदार हैं, भगवान पर इनका कॉपीराइट है या ये आज भी दलितों का शोषण कर सकते हैं तो वहीं दलित समुदाय में भी कई ऐसे गुट बन चुके हैं जिनका एक मात्र उद्देश्य है कि अगर हजार साल पहले ब्राह्मणों ने हमारे पूर्वजों को शोषण किया था तो आज हम उसका बदला लेंगे और ध्यान रखिये ये मैं बस कुछ लोगों की बात कर रहीं हूं जो दोनों ही तरफ हैं। बाकी जो पढ़े लिखे जिम्मेदार लोग हैं उनकी आज भी पहली चिंता शिक्षा, रोजगार और महंगाई ही है। लेकिन इन चरमपंथियों की चिंता ये है कि एक-दूसरे को नीचा कैसे दिखाया जाये, फिर चाहे ब्राह्मण हो या दलित और इस डिजिटल युग में सोशल मीडिया के सहारे इनका ये काम बेरोकटोक चल भी रहा है। जिससे नेताओं को राजनीती करने का मुद्दा मिल जाता है और मीडिया को टीआरपी के लिए हेडलाइन मिल जाती है। फिर चाहे देश की वास्तविक समस्या जाए चूल्हे में, न एक्सट्रिमिस्टों को इससे मतलब है और नेताओं को तो वैसे ही नहीं है।



समय के साथ विकास होता है ये भूल गए हैं ये लोग। इनको ये समझने की जरुरत है कि आज से हजारों साल पहले अगर लोग एक सिमित और संक्रमित सोच के कुंए में रह रहे थे तो आज वो आकशगंगा से भी विकसित सोच वाली दुनिया में सांस ले रहे हैं जहां जाती और धर्म से परे शिक्षा और अनुशाशन को महत्व देना ही उचित माना जाएगा। चाहे ब्राह्मण एक्स्ट्रीमिस्ट हों या दलित एक्सट्रिमिस्ट उन्हें इस बात को मानने की जरुरत है कि कोई भी विशेष धर्म हो या विशेष जाती वो अकेले कभी किसी देश के विकास का कारण नहीं बन सकती और अगर देश में जातिगत चरमपंथी और धार्मिक कट्टरता जरुरत से ज्यादा एक्टिव हो जाए तो उस देश के लिए इससे भयानक कुछ भी नहीं है।

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