भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत और दार्शनिक परंपराएं हजारों वर्षों से मानव सभ्यता के लिए दिशा-दर्शन का कार्य करती आई हैं। जब विश्व औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में केवल भौतिकता की ओर उन्मुख हो रहा था, भारत तब भी अध्यात्म, संतुलन और समग्र जीवन दृष्टि की बात करता था। आज जब तकनीकी प्रगति के बावजूद मानवता कई आंतरिक संकटों से जूझ रही है, तब भारतीय दृष्टिकोण की प्रासंगिकता पुन: केंद्र में आ गई है।
भारतीय दर्शन का मूल आधार ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’, ‘अहिंसा परमो धर्म:’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ जैसी विचारधाराएं रही हैं। वैदिक साहित्य, उपनिषद, गीता, बौद्ध, जैन, सिख तथा भक्ति परंपराओं में वर्णित नैतिक सिद्धांत आज वैश्विक नीति और मानव अधिकारों की चर्चा के केंद्र में हैं। यह मूल्य समाज में समरसता, शांति और परस्पर सहयोग को बढ़ावा देते हैं।
भारतीय संस्कृति महज धार्मिक अनुष्ठानों या रीति-रिवाजों का संकलन नहीं है, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन, सौहार्द और संयम का संदेश देती है। पर्व-त्योहार, नृत्य-संगीत, वास्तुकला, ग्राम्य जीवन, लोककलाएं और कुटीर उद्योग न केवल सांस्कृतिक अस्मिता को संरक्षित करते हैं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में भी सहायक बनते हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में योग, आयुर्वेद, स्वास्थ्य, संतुलन की वैश्विक स्वीकार्यता मिली है। सम्पूर्ण विश्व योग को एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में स्वीकार कर चुका है।
वैश्वीकरण, बाजारीकरण और सांस्कृतिक चुनौतियां डिजिटल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय परंपराओं को एकांगी ढंग से प्रस्तुत किया है। विज्ञापन, फिल्म और सोशल मीडिया के माध्यम से मूल्यों को विकृत किया जा रहा है। इस विकृति के विरुद्ध भारतीय परंपरा की मूल आत्मा को समझने और प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। भारतीय दर्शन, संस्कृति एवं परंपराएं आज की दुनिया को स्थिरता, संतुलन और नैतिक दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भारतीय परंपराएं केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा हैं। विश्व को भारत की समग्र दृष्टि की अत्यधिक आवश्यकता है।
यह लेखिका के अपने विचार है। लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार है
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