संवेदनहीनता की राजनीति का बढ़ता संकट


- गंगा पाण्डेय
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अमूल्य अधिकार है, परंतु जब यह स्वतंत्रता संवेदनहीनता का रूप ले ले, तब वह न केवल सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाती है, बल्कि मानवता के मूल्यों को भी अपमानित करती है। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के संदर्भ में भाजपा के राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगड़ा के बयान ने इसी तरह की असंवेदनशीलता को उजागर किया। उनके अनुसार, यदि हमले में मारे गए लोग औरतों की तरह नहीं बल्कि 'वीरांगनाओं' की भांति प्रतिक्रिया करते तो शायद वे मारे नहीं जाते और आतंकी भी मारे जाते। यह बयान केवल पीड़ितों के प्रति उपेक्षा ही नहीं दर्शाता, बल्कि आतंकवाद की जटिलता को भी सरलीकृत कर एक अजीब तरह का दोषारोपण प्रस्तुत करता है।

जब किसी आतंकी हमले में निर्दोष आम नागरिक मारे जाते हैं, तो देश की संवेदना उनके साथ होनी चाहिए। ऐसे समय में जनता के प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी होती है कि वे न केवल शोक में सहभागी बनें, बल्कि पीड़ितों को संबल भी दें। परंतु जब ऐसे प्रतिनिधि उल्टे पीड़ितों को ही अप्रत्यक्ष रूप से दोषी ठहराएं, तो यह न केवल नैतिक पतन को दर्शाता है बल्कि समाज में अराजकता और असहिष्णुता को भी बढ़ावा देता है। रामचंद्र जांगड़ा का यह बयान न केवल असंवेदनशील था, बल्कि आतंकवाद जैसे जटिल मुद्दे पर उनकी अज्ञानता का भी प्रमाण था।

उनका कहना था कि अगर महिलाएं वीरांगनाओं की तरह लड़तीं, तो हमला टाला जा सकता था। यह कथन न केवल लिंगभेदपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक यथार्थ से भी परे है। आतंकवादी हमले योजनाबद्ध, सुसंगठित और अत्याधुनिक हथियारों से लैस होते हैं। आम नागरिक, विशेषकर महिलाएं, जिनके पति आतंक का शिकार हो चुके हों, उनसे ऐसी वीरता की अपेक्षा करना एक प्रकार की क्रूर विडंबना है। यह उन स्त्रियों के दुःख और मानसिक आघात को नकारने जैसा है, जिन्होंने अपने परिजनों को खोया है।



इस प्रकार का वक्तव्य केवल जांगड़ा का पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी अनेक बार नेताओं ने आतंकवादी हमलों या किसी राष्ट्रीय आपदा के बाद ऐसे बेतुके और अपमानजनक बयान दिए हैं। कभी पीड़ितों के पहनावे पर सवाल उठाया जाता है, तो कभी उनकी जीवनशैली को दोषी ठहराया जाता है। इन सबके पीछे एक ही मानसिकता कार्यरत है- सत्ता के घमंड में चूर, आम जनता के दुःख से विमुख, और घटनाओं को राजनीतिक लाभ की दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति न केवल अमानवीय है, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों के भी विपरीत है।

यह भी देखा गया है कि जब ऐसे बयान सार्वजनिक आलोचना का शिकार होते हैं, तो नेता या तो बयान से मुकर जाते हैं या उसे तोड़-मरोड़ कर "गलत तरीके से प्रस्तुत किए जाने" का आरोप लगा देते हैं। किंतु प्रश्न यह है कि क्या एक जनप्रतिनिधि को यह अधिकार है कि वह पीड़ितों की पीड़ा को अपमानित करे और फिर 'स्पष्टीकरण' के माध्यम से खुद को निर्दोष घोषित कर दे? क्या यह देश की जनता के साथ एक प्रकार का मजाक नहीं है?

इस समूचे प्रकरण से एक गहरा और खतरनाक संकेत मिलता है। वह यह कि कुछ नेता देश की गंभीर परिस्थितियों को, चाहे वह आतंकवाद हो, साम्प्रदायिक हिंसा हो या कोई प्राकृतिक आपदा, एक मनोरंजन या वक्तव्यबाजी का अवसर मान बैठते हैं। वे न तो स्थिति की गंभीरता को समझते हैं, न ही पीड़ितों की मनोदशा को। उन्हें केवल अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना है,  चाहे वह सामाजिक विमर्श को भटकाना हो या मीडिया में चर्चा में बने रहना।

रामचंद्र जांगड़ा जैसे नेता यदि राज्यसभा के सदस्य हैं और महत्वपूर्ण मामलों पर बहस का हिस्सा हैं, तो यह हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की एक विडंबना है। यह सोचने पर विवश करता है कि क्या ऐसे लोग सचमुच इस योग्य हैं कि वे जनता की आवाज़ बनें? या फिर वे केवल संसद की गरिमा को अपने बेलगाम बोलों से चोट पहुंचाने का काम कर रहे हैं?

ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि राजनीतिक दल भी अपने सदस्यों की भाषा, सोच और बयानों पर निगरानी रखें। केवल चुनाव जिताना ही किसी पार्टी का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि संवेदनशीलता, समझदारी और सामाजिक जिम्मेदारी को बढ़ावा देना भी उसका कर्तव्य होना चाहिए। यदि कोई नेता बार-बार इस तरह के विवादास्पद और अमानवीय वक्तव्य देता है, तो उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई आवश्यक होनी चाहिए।

साथ ही, मीडिया की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। मीडिया को ऐसे बयानों को सनसनी की तरह परोसने के बजाय, उनकी गंभीर आलोचना करनी चाहिए और समाज में यह संदेश फैलाना चाहिए कि पीड़ितों के दुःख का उपहास किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। साथ ही, समाज को भी सजग रहकर यह पहचानने की ज़रूरत है कि नेता का काम भाषण देना नहीं, बल्कि दुःख के समय जनता के साथ खड़ा रहना है।

अंततः यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या बेलगाम बोल किसी नेता की पहचान का पर्याय बन गए हैं? क्या वे समाज में केवल विवाद खड़ा करके अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना चाहते हैं? या फिर वे इस भ्रम में हैं कि संवेदनहीनता ही राजनीति का नया औजार बन गई है? इस प्रश्न का उत्तर हम सबको मिलकर देना होगा, एक सजग नागरिक के नाते, एक संवेदनशील समाज के हिस्से के रूप में।



संवेदनशीलता, सहानुभूति और मानवीयता, ये तीन मूल्य किसी भी राष्ट्र की आत्मा होते हैं। यदि हमारे जनप्रतिनिधि ही इन मूल्यों का अपमान करने लगें, तो यह केवल राजनीति का पतन नहीं, बल्कि सभ्यता के क्षरण की ओर संकेत है। अतः यह आवश्यक है कि समाज, मीडिया, और राजनीति, तीनों मिलकर ऐसी सोच और ऐसे वक्तव्यों का विरोध करें जो पीड़ितों को ही दोषी ठहराने की धृष्टता करते हैं। अब समय आ गया है जब जनता यह स्पष्ट कर दे कि उसे प्रतिनिधि चाहिए प्रवक्ता नहीं, संवेदना चाहिए, बयान नहीं और नेतृत्व चाहिए, उपहास नहीं। तभी हम एक संवेदनशील, उत्तरदायी और मानवीय लोकतंत्र की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

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