अंशुमाली
दिखे नभ भोर की लाली,सुनहरी छवि निराली है ।
निकल प्राची दिवाकर की,बिखरती अंशुमाली है ।।
धरा स्वागत करे रंजित,किरण की बाँह फैलाकर ।
लहर टकरा किनारों को,चुमे है सिंधु का आकर ।।
विहग उन्मुक्त अंबर में , करे अठखेलियाँ न्यारी ।
हवाएँ सरसराती जब , नचायें डालियाँ प्यारी ।।
करे तब नृत्य तरुवर तो , बजाते पात ताली है ।
निकल प्राची दिवाकर की,बिखरती अंशुमाली है ।।
खिले हैं बाग में सुंदर,सुमन प्यारी सुगंधित है ।
लुटाता प्रेम मधुकर आ,तिली भी संग हर्षित है ।।
मधुर है छेड़ती बुलबुल,मनोहर तान गाने को ।
मचल जाती नदी धारा,सतत कल-कल सुनाने को ।।
हरित धरती प्रकट पुलकित,करे पल-पल सुहाना है ।
प्रकृति की गोद में जीवन,लगे हर क्षण बिताना है ।।
अरे मानव कहाँ फिर ये , न मिलने अंक वाली है ।
निकल प्राची दिवाकर की , बिखरती अंशुमाली है ।।
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- डिकेश दिवाकर, छत्तीसगढ़।
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