छोटी कार की बड़ी समस्या गत वित्तीय वर्ष में मात्र दो फीसदी बढ़ी कारों की बिक्री
राजीव त्यागी
अधिक महंगे और ज्यादा कर वाले स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल्स (एसयूवी) की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2024-25 में बिके कुल यात्री वाहनों में 50 फीसदी से अधिक रही।
यात्री वाहन बाजार की बदलती तस्वीर इस बात का सटीक उदाहरण है कि कोविड के बाद देश में आर्थिक सुधार की प्रक्रिया दो एकदम विपरीत दिशाओं में चल रही है। अधिक महंगे और ज्यादा कर वाले स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल्स (एसयूवी) की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2024-25 में बिके कुल यात्री वाहनों में 50 फीसदी से अधिक रही। इनकी बिक्री और भी बढ़ने की संभावना है। मगर उस वित्त वर्ष में छोटी कारों की बिक्री केवल दो फीसदी बढ़ी।
देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजूकी से भी संकेत लिया जा सकता है। वित्त वर्ष 2025 में कारों की देसी बिक्री 2.6 फीसदी बढ़ी मगर छोटी कार (जिनकी लंबाई 4 मीटर से कम होती है और इंजन 1,200 से 1,500 सीसी का होता है) की बिक्री 9 फीसदी घट गई। टाटा मोटर्स और ह्युंडै की छोटी कारें 3 फीसदी कम बिकीं। बाजार में इस बदलाव के अर्थव्यवस्था पर असर होंगे। वाहन उद्योग देश के विनिर्माण क्षेत्र के करीब आधे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और कुल जीडीपी के 7 फीसदी के बराबर योगदान करता है। यह बाजार आम तौर पर छोटी कारों से ही चलता है।
कार बाजार के जानकारों का कहना है कि लोगों की आय ठहर जाने के कारण छोटी कारों की बिक्री घटी है। देश में सालाना 12 लाख रुपये से अधिक आय वाले केवल 12 फीसदी परिवार हैं। मारुति के चेयरमैन आर सी भार्गव कहते हैं कि 88 फीसदी परिवार कार बाजार से बाहर हैं। वह नियमों के कारण बढ़ते खर्च की बात भी करते हैं और कहते हैं कि छह एयरबैग लगाए जाने और कर बढ़ाए जाने से भी छोटी कार बाजार से बाहर हो रही हैं। वाकई आज ऐसी कोई छोटी कार नहीं है, जिसकी कीमत 3 लाख रुपये से कम हो और जिसे घर लाने के लिए 4 लाख रुपये के कम चुकाने पड़ते हों।
बहरहाल कई कारक दबी मांग की ओर भी इशारा कर रहे हैं, जो कीमत और आय की बाड़ लांघ सकती है। सबसे पहले तो एसयूवी ग्राहकों में उनकी संख्या बढ़ रही है, जो पहली कार खरीदने आए। पहले ऐसे ग्राहक छोटी कार ही खरीदते थे। इससे पता चलता है कि छोटी कारें हमेशा से चली आ रही बढ़त खो रही हैं। दूसरी बात, पिछले वित्त वर्ष में दोपहिया वाहनों का बाजार बढ़ा, जिसका मतलब है कि वाहन खरीदने वाले अब भी कीमत को तवज्जो देते हैं। तीसरी बात, सेकंड हैंड कारों का बाजार भी तेज दौड़ रहा है, जहां छोटी कारों और सिडैन का बोलबाला है।
इससे पता चलता है कि कार कंपनियां लंबे समय तक ऐसे बाजार में गाड़ी बेचती रहीं, जहां अधिक विकल्प ही नहीं थे। मगर अब ग्राहकों को छोटी कारों के बाजार तक लाने के लिए उन्हें कुछ नया सोचना होगा। सच में ह्युंडै के टॉल-बॉय मॉडल और टाटा मोटर्स की नैनो के अलावा इस बाजार में कुछ नया हुआ ही नहीं है।
दूसरे उद्योगों से सीखना चाहिए। बेहद कम मार्जिन पर चलने वाले विमानन उद्योग ने बाजार बढ़ाने के लिए किफायती किराये और डायनैमिक प्राइसिंग का हुनर सीख लिया। उपभोक्ता उत्पाद कंपनियां समझ गईं कि छोटे पैक (जैसे शैंपू के सैशे) या कुछ नया मिलाने (आयोडीन युक्त नमक) से कम आय वाले उपभोक्ता आ सकते हैं, जो वैसे इन उत्पादों से दूर रहते। कॉल में प्रति सेकंड बिलिंग और कंपनी का कनेक्शन लेने पर साथ में मिल रहे हैंडसेट ने मोबाइल टेलीफोन की सूरत ही बदल दी।
कार बाजार में बिल्कुल ऐसा दोहराना तो संभव नहीं है मगर वहां आ रही समस्याओं को चुस्ती से हल करें तो मांग में ठहराव की चिंता को दूर किया जा सकता है। इस लिहाज से करों के बारे में शिकायत में कुछ दम दिखता है। जिस उद्योग को प्रमुख आर्थिक संकेतक माना जाता है, उस उद्योग में छोटी कारों को विलासिता की वस्तु मानना और उन पर 29 से 31 फीसदी कर लगाना कहीं से भी सही नहीं है। कर में कमी से इस बाजार का ठहराव कम हो सकता है मगर कार निर्माताओं को अपनी नीतियों पर भी विचार करना होगा।
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