लोकतंत्र की दरकार

इलमा अज़ीम 
देश में मानवाधिकारों की स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। यह केवल अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों का कथन नहीं, बल्कि आंकड़ों से पुष्ट सच्चाई है। जेलों की हालत इतनी दयनीय है कि कई राज्यों की जेलों में 150 प्रतिशत से भी अधिक की कैदियों की भीड़ है। इनमें से अधिकतर कैदी विचाराधीन हैं, यानी उन्हें किसी अदालत ने दोषी सिद्ध नहीं किया, फिर भी वे वर्षों से कारावास में हैं। 

यह स्थिति केवल कानून की विफलता नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन है। पुलिस, जो न्याय प्रक्रिया की पहली कड़ी होती है, वह खुद जवाबदेही और पारदर्शिता के संकट से जूझ रही है। जेलों में कैदियों की भीड़ और बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी के कारण जेलें सुधार गृह नहीं, बल्कि मानवाधिकार हनन के केंद्र बन गई हैं। 



मानसिक रूप से बीमार कैदी, बुजुर्ग और महिलाएं सबसे अधिक पीड़ित हैं। मनोरोग विशेषज्ञों और परामर्शदाताओं की अनुपस्थिति, अत्यधिक गर्मी-सर्दी में राहत की व्यवस्था का अभाव और कानूनी सलाह की पहुंच न होना, इस स्थिति को और भी गंभीर बना देता है। न्यायपालिका की स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती। 


करोड़ों मुकदमे अदालतों में लंबित हैं। एक सामान्य नागरिक को अपना मुकदमा निपटाने में 10-15 वर्ष तक इंतजार करना पड़ता है। ‘विलंबित न्याय, अन्याय होता है’ यह कहावत अब भारत में कड़वी सच्चाई बन गई है। यह हमें स्मरण कराती है कि यदि न्याय की नींव कमजोर होगी, तो लोकतंत्र की इमारत कभी टिक नहीं सकती। केवल चुनाव, योजनाएं और विकास के आंकड़े पर्याप्त नहीं, जब तक कि समाज का हर वर्ग न्याय तक सहज, सुरक्षित और सुलभ पहुंच न पाए।


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