अवसाद और बच्चे

आजकल की भाग-दौड़ वाली दुनिया में मानसिक समस्याएं बड़ी तेजी से लोगों को अपना शिकार बनाती जा रही हैं। इसका प्रभाव इतना तीक्ष्ण और विकराल होता है कि इससे न तो कोई देश बचा है, और न ही कोई राज्य... इसके घातक प्रभाव से अछूता आज न तो कोई गांव है, न कोई शहर और न ही कोई गली−मोहल्ला। इसका शिकार बच्चे, किशोर, बड़े, वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी हो रहे हैं, लेकिन आंकड़ों की बात करें तो विशेष रूप से, बच्चों और किशोरों में यह समस्या कुछ ज्यादा ही जटिल होती जा रही है।



 इसके कारण बच्चों की मासूमियत खत्म होती जा रही है। वे बेहद गुस्सैल होते जा रहे हैं। वे बात-बात पर क्रोध करने लगे हैं। उनकी बात नहीं सुनी और मानी जाए तो वे आपे से बाहर हो जाते हैं। यहां तक कि कई बार तो अपने माता-पिता और अभिभावक के ऊपर हमले करने से भी वे नहीं चूकते। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि खेलने-कूदने और खाने−पीने की आयु में देश के बच्चों और किशोरों में बैचेनी, डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं आज गंभीर से गंभीरतम रूप लेती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की 'मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल' नामक ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 10 से 19 वर्ष का प्रायः प्रत्येक सातवां बच्चा किसी-न-किसी प्रकार की मानसिक समस्या से जूझ रहा है। इन समस्याओं में अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। एक अनुमान के मुताबिक मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी लगभग एक तिहाई समस्याएं 14 साल की उम्र से पहले शुरू हो जाती हैं, जबकि इनमें से आधी समस्याएं 18 वर्ष से पहले सामने आने लगती हैं।


इसलिए यह बहुत जरूरी है कि बच्चों का स्पोर्ट्स टाइम बढ़ाने और स्क्रीन टाइम घटाने का हर संभव प्रयास किया जाए। लेकिन जो बच्चे पहले ही एंग्जाइटी और डिप्रेशन का शिकार बन चुके हैं, उन्हें ठीक करने के लिए तत्काल सभी आवश्यक कदम उठाए जाने की जरूरत है। वैसे, देखा जाए तो मस्तिष्क का विकास लाइफस्टाइल एवं अनुभव के आधार पर होता है। इसलिए बच्चों को रियलिस्टिक बनाएं। उन्हें जीवन की वास्तविकताओं से अवगत कराएं। 

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