हिंसा रोकनी हो प्राथमिकता
इलमा अजीम 
कभी शांतिप्रिय माने जाने वाले मणिपुर में बीते डेढ़ साल से जारी हिंसा एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। हाल के दिनों में पनपी गंभीर हिंसा की घटनाएं राज्य नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठाती हैं। केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार होने के बावजूद हिंसा न थमने को लेकर विपक्ष लगातार सवाल उठाता रहा है। राज्य में कई विधायकों के घरों पर हमले व आगजनी की घटनाएं हुई हैं। यहां तक कि साठ सदस्यीय विधानसभा में सात सदस्यों वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी ने राज्य सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। पार्टी का आरोप है कि मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार संकट का समाधान निकालने तथा सामान्य स्थिति बहाल करने में पूरी तरह विफल रही है। 


हालांकि एनपीपी के समर्थन वापस लेने से सरकार को कोई खतरा नहीं हैं क्योंकि सरकार के पास विधानसभा में पर्याप्त बहुमत है, लेकिन घटनाक्रम स्थिति की गंभीरता को जरूर दर्शाता है। विपक्ष मणिपुर के बेहद चिंताजनक हालात होने के बावजूद प्रधानमंत्री की अपेक्षित सक्रियता न होने का आरोप संसद से सड़क तक लगाता रहा है। वे आरोप लगाते रहे हैं कि पूरी दुनिया की खैर-खबर लेने वाले प्रधानमंत्री मणिपुर नहीं जाते। साथ ही उनका आरोप है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय लगातार बिगड़ती स्थिति को नियंत्रित करने में विफल रहा है। सवाल यह भी कि सुरक्षा बलों की निरंतर बढ़ती उपस्थिति के बावजूद स्थितियां नियंत्रण में क्यों नहीं आ रही हैं। यह भी कि लगातार हिंसा व चौपट होती कानून व्यवस्था के बाद भी कैसे पार्टी मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर भरोसा जता रही है।


 उनकी विफलताओं के बावजूद उनको हटाने की मांग को क्यों नजरअंदाज किया जा रहा है। वह भी तब जबकि आक्रोशित जनता पार्टी विधायकों के घरों को आगजनी से निशाना बना रही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वोत्तर का यह राज्य संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ा है। मणिपुर की हिंसा बीते साल मई में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग के बाद शुरू हुई थी। जिसका राज्य के कुकी व नागा समुदाय ने हिंसक विरोध किया था। केंद्र व राज्य सरकार की कोशिश हो कि संकट का राजनीतिक व सामाजिक समाधान निकाला जाए ताकि समुदायों में सामंजस्य से हिंसा को टाला जा सके।

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