आवासविहीन लोगों को कब मिलेगी छत

- लक्ष्मीकांता चावला
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले 77 वर्षों में भारत ने बहुत उन्नति की है। 1947 में देश की केवल धरती का ही बंटवारा नहीं हुआ, लोग भी बंट गए, कट गए, उजड़ गए, दीनहीन, अनाथ होकर देश के करोड़ों लोग विस्थापित होकर अथवा सांप्रदायिक दंगों का शिकार होकर भूखे, अद्र्धनग्न सडक़ों पर जीने, तड़पने को मजबूर हो गए। भारत की तत्कालीन सरकार ने उस देश को संभाला। साढ़े पांच सौ से ज्यादा रियासतों में बंटे देश को सरदार पटेल जी जैसे नेता ने एक सूत्र में पिरोया और धीरे-धीरे शरणार्थी समस्या का भी समाधान करके उन देशवासियों को संभाला, गले लगाया जो सब कुछ लुटाकर भारत आए थे। समय ने उनके घाव तो शायद पूरी तरह न भरे हों, पर देशवासियों ने शरणार्थी बनकर आए अपने भाई-बहनों को घर-परिवार बसाने में पूरा सहयोग दिया। यह तो हो गई 77 वर्ष पुरानी त्रासदी की बात।
इन वर्षों में देश का गौरव बढ़ा, संसाधन बढ़े, सीमाओं की रक्षा करने में हम समर्थ हुए। जल-थल-नभ के पहरेदार मजबूत होकर देश की रक्षा कर रहे हैं। इसी बीच कभी शिक्षा का अधिकार, कभी स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार दिया गया। कानून के समक्ष सब नागरिकों को समानता का अधिकार तो संविधान निर्माताओं ने ही दे दिया था, पर आज भी हम निश्चिंत नहीं हो सकते। एक तरफ तो यह समाचार मिलते हैं कि किसी धनपति ने 600 से ज्यादा कमरों वाला ऐसा महल बनाया जिसके गैराज में सैकड़ों कारें एक समय खड़ी हो सकती हैं। देश के राजभवनों, राष्ट्रपति भवन, नया संसद भवन एवं अन्य कुछ विशिष्ट इमारतों की सुंदरता, लंबाई-चौड़ाई की चर्चा यदा कदा होती रहती है। हमारे देश के टीवी चैनलों में भी ऐसी बहुत सी चर्चाएं होती हैं जिनका आम आदमी को तो कोई लाभ नहीं, पर कुछ नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप और लड़ाई-झगड़े का मंच बना रहता है।



अगर कभी नहीं चर्चा होती तो उन बेचारों की नहीं होती जो एक रैनबसेरे के अभाव में या एक छत को तरसते हुए रात भर ठंडी-गर्म सडक़ों पर पड़े ठिठुरते या सिकुड़ते आकाश के तारों को देखते हैं और अनेकश: वे तारे भी धुंध और कोहरे में लिपटे उन्हें दिखाई नहीं देते। नरेंद्र मोदी ने अपने प्रधानमंत्रीकाल में एक लक्ष्य बनाया है कि जिनके पास अपने घर नहीं, झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को विवश हैं, उनको मकान दिए जाएं। बहुत से दिए भी गए, पर वह सब ऊंट के मुंह में जीरा है। ऐसी दुखद घटनाएं बार-बार सुनने को मिलती हैं कि लोग सडक़ पर सोये थे और तेज रफ्तार कार ने कुचल दिया। बड़े महानगरों में जहां फुटपाथ पर सोने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा है, ऐसी घटनाएं अधिक होती हैं। मुंबई से लेकर पंजाब तक यदा-कदा ऐसे दुखद, पर देश के विकास पर तीखा प्रश्नचिन्ह उठाने वाले समाचार मिलते हैं। बड़े-बड़े दावे ये सरकारें करती हैं कि रैनबसेरे बनाए गए। गरीबों को सोने के लिए जगह दी गई, पर जगह वहां मिलती है जहां कभी भी कहीं भी मौत झपटकर उन्हें ले जाती है। श्रम विभाग और मानव अधिकार आयोग भी नहीं देखता कि जहां ये मजदूर काम करते हैं वहां इनको मानव के योग्य स्थान और वातावरण दिया जाता है या नहीं। सडक़ों पर गरीबों के किसी न किसी वाहन से कुचले जाने की घटनाएं देश में सुनने को मिलती हैं।



हरियाणा के हिसार के एक फुटपाथ पर सोये हुए मजदूर कार द्वारा कुचले गए। पांच की मौत हो गई। कुछ घायल हो गए। दिल्ली में भी फुटपाथ पर सोये लोगों की वाहनों से कुचलकर मौत के समाचार आ चुके हैं। मुंबई में तो ऐसा संभवत: कई बार हुआ होगा, लेकिन जब कार चालक कोई विशिष्ट अभिनेता या नेता हो तो उन बेचारों को न्याय भी नहीं मिल पाता जो बिना छत और बिना कंबल के सडक़ों पर सोने को मजबूर हो गए। खन्ना में अबोध बच्चों के कार द्वारा कुचले जाने के बाद यह प्रतीक्षा रही कि कोई टीवी चैनल या कलम का धनी इन बच्चों की बिलखती मां की पीड़ा देश और देश के शासकों तक पहुंचाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। जो मजदूर सडक़ों पर कुचले जाते हैं या जो बच्चे भूखे मर जाते हैं जैसा कि देश के कई भागों से समाचार आते हैं, उनका अधिक विवरण इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वे वोट बैंक नहीं।

दूसरे प्रांतों से आकर यह हमारे पुल बनाते हैं, सडक़ें चमकाते हैं, विकास की गति को आगे बढ़ाते हैं, पर उनका विकास तो किसी का दायित्व नहीं। अब फिर सर्दी का मौसम प्रारंभ हो गया है। पहाड़ों के ऊपरी भागों में बर्फ पडऩी प्रारंभ हो चुकी है। पिछले दिनों भी भूस्खलन, अधिक वर्षा और बाढ़ के कारण हिमाचल और उत्तराखंड में बहुत विनाश हुआ, पर ज्यादा पीड़ा उनको सहनी पड़ती है जो बेघर और बेआसरे हैं। मौसम विभाग ने यह भविष्यणवाणी भी कर दी है कि इस बार सर्दी ज्यादा होगी। मैदानों में ही सर्दी से बचना मुश्किल है, ऊपर पहाड़ों में कितनी भयानक सर्दी होगी, इसकी कल्पना भी दिल्ली में बैठे वे शासक नहीं कर सकते जिनके कमरे हमेशा गर्म या ठंडे रहते हैं। मौसमविद यह कहते हैं कि पर्यावरण के लिए सर्दी लाभदायक है, पर जिन बेचारों के पास रात को सोने के लिए एक छत नहीं, उनके लिए तो सर्दी न बढऩा वरदान है। निश्चित ही अगले दिनों में फिर यही समाचार आएंगे कि किस प्रांत में कितने लोग सर्दी से ठिठुरकर मौत के मुंह में चले गए। इन बेचारों के लिए अगर शिक्षा के अधिकार से पहले एक छत का अधिकार सरकार ने लिख दिया होता और कोई सरकारी, गैरसरकारी, विश्रामघर, रैनबसेरे इन बेघरों के लिए भी सरकारें बनवा देतीं तो कोई भी सर्दी या गर्मी से मौत के मुंह में न जाता। बहुत से ऐसे सामाजिक और धार्मिक संगठन हैं जिनके बड़े-बड़े विशालकाय भवन, पंडाल, कथा भवन पूरे वर्ष में दो-चार बार ही प्रयोग में लाए जाते हैं, अन्यथा वहां एक भी व्यक्ति नहीं रहता। क्या सरकारें ऐसा आदेश लागू नहीं कर सकतीं कि इन बड़े-बड़े सामाजिक और धार्मिक संगठनों के भवनों में उन लोगों को शरण दी जाए जिनके पास कोई छत नहीं है। यह ठीक है कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की ओट लेकर कोई भी धार्मिक संस्थान अपनी इच्छा के बिना इन लोगों को अपनी छत की ओट लेकर सोने की आज्ञा नहीं देगा।
सभी जानते हैं कि इन भवनों का स्वामित्व नहीं दिया जाएगा, यहां शरण दी जाएगी। सामाजिक और धार्मिक संगठनों का अपना भी तो यह कर्तव्य है कि वे जनता के धन से बनी इन विशालकाय इमारतों का पूरा सदुपयोग करें, पर ऐसा होगा नहीं, क्योंकि जब तक राजभवनों और राजधानी में बैठे सरकार चलाने वालों के बड़े-बड़े भवन, बाग-बगीचे केवल दो चार व्यक्तियों के टहलने के लिए ही रहते हैं, तब तक समाज अपने दरवाजे उन बेचारों के लिए कैसे खोलेगा, और क्यों खोलेगा?



हम अपने आप को आज वैश्विक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में बहुत आगे देखते हैं, पर इस अर्थव्यवस्था का लाभ अगर उनको नहीं मिलता जो अर्द्धनग्न, आधे भूखे, शिक्षा से विहीन और नारकीय जीवन जीने को विवश हैं, आज भी बड़े-बड़े होटलों अथवा वैवाहिक, धार्मिक समारोहों से बची जूठन के लिए तरसते हैं, तब तक हम कैसे विकसित हो गए? अर्थव्यवस्था में आगे कैसे हो गए? स्वतंत्रता के एकदम बाद एक कवि ने भूख से त्रस्त लोगों की व्यथा को इन शब्दों में प्रकट किया था- लपक चाटते जूठे पत्ते, जिस दिन देखा मैंने नर को, सोचा क्यों न टैटुआ घोटा जाए? भारत के महान कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर जी ने सडक़ों पर ही पैदा होने से लेकर वहीं मर जाने वाले भारत के गरीब लोगों, विशेषकर अबोध बच्चों की पीड़ा से द्रवित होकर ही यह लिखा था- ‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं, मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।’ अफसोस है कि साठ वर्ष पहले जिस पीड़ा से व्याकुल हो उठे थे दिनकर, आज भी वही पीड़ा देश के हर प्रांत में है, पर कोई दिनकर नहीं। जितने भी लोग बेघर हैं, उनको एक छत का मूल अधिकार तो दे दिया जाए।
(स्वतंत्र लेखिका)

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