तीखी हुई तेल की धार

इजमा अजीम 
दीपावली के त्योहारी मौसम में खाद्य तेलों की कीमतों में खूब उबाल आया । यह चुनाव का मौसम भी है। महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनावों की गहमागहमी है। इसी दौरान महंगाई का मुद्दा एक बार फिर गरमा उठा है। एक महीने के दौरान ही ताड़, सूरजमुखी, सोयाबीन, सरसों और मूंगफली के तेल काफी महंगे हो गए हैं। ताड़ के तेल की कीमतों में 37 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। ये सभी रोजाना के इस्तेमाल में आने वाले खाद्य तेल हैं। वे औसतन 58 फीसदी महंगे हुए हैं। बीते माह सितंबर में खुदरा मुद्रास्फीति की दर 5.5 फीसदी थी, जो 9 महीनों में सर्वाधिक थी। खाद्य तेलों की महंगाई भी मुद्रास्फीति से जुड़ी है अथवा यह मुनाफाखोरी, जमाखोरी या कालाबाजारी की महंगाई है। अजीब विरोधाभास है कि भारत दलहन और तिलहन का बड़ा उत्पादक देश है। सरसों, सोयाबीन, ताड़ आदि की फसलें पर्याप्त हुई हैं। उसके बावजूद भारत को 65 फीसदी खाद्य तेल विदेशों से आयात करना पड़ता है। यह मोदी सरकार का ही विरोधाभास नहीं है। मौजूदा सरकार से पहले भी हमें 58 फीसदी खाद्य तेल आयात करना पड़ता था। 
यह विरोधाभास इसलिए है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी अधिक तिलहन, दलहन की पैदावार का आह्वान करते रहे हैं, किसानों ने अधिक पैदावार की भी है, लेकिन सरकार 10-20 फीसदी फसल की ही खरीद करती है। ऐसा क्यों है? सवाल यह भी है कि भारत ने खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनने की कोशिश क्यों नहीं की? भारत कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बना भी है और कइयों में ऐसे प्रयास जारी हैं, लेकिन किसानों की फसल खरीद में अलग-अलग मापदंड हैं। खाद्य तेल घरेलू भोजन का आधार हैं, तो होटल, रेस्तरां, ढाबों और मिठाई की दुकानों की भी बुनियादी जरूरत हैं। उनके यहां खाद्य तेल की खपत खूब होती है, क्योंकि तेल से ही विभिन्न व्यंजन बनाए जाते हैं। 

अब बीते एक माह के दौरान ही सरसों का तेल 29 फीसदी, सोयाबीन और सूरजमुखी के तेल 23 फीसदी प्रति महंगे हुए हैं।गनीमत है कि मूंगफली के तेल की कीमतें मात्र 4 फीसदी ही बढ़ी हैं। जाहिर है कि घरेलू और व्यवसायों की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। तेल से बनने वाले व्यंजन या सामान्य भोजन अथवा स्नैक्स आदि सभी महंगे होंगे। क्या आम आदमी इस महंगाई को झेल सकता है?

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