राजनीति की दिशा व दशा

 इलमा अजीम 
गरीबी, अशिक्षा, यातायात जाम और भुखमरी जैसी समस्याओं का एक मूल कारण बढ़ती जनसंख्या है। कोई भी राजनीतिक दल इसे अपने एजेंडे के रूप में नहीं रखना चाहता, क्योंकि कई समुदाय इस मुद्दे का विरोध करेंगे और यह एक राजनीतिक पार्टी के वोट बैंक को प्रभावित कर सकता है। अगर समय रहते बढ़ती जनसंख्या को रोका नहीं गया तो हमारे संसाधनों पर इसका दुष्प्रभाव पडऩा लाजिमी हो जाएगा। देश को जल्द से जल्द कोई कारगर जनसंख्या नीति बनाने की जरूरत है। इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। असंख्य बलिदानों से जब देश स्वतंत्र हुआ तो हमारे तत्कालीन समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों और राजनीति की समझ रखने वालों तथा शासन तंत्र की सुव्यवस्था के लिए कृतसंकल्प स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले पुरोधाओं ने बहुत विचार-विमर्श के बाद हमें एक ऐसा संविधान दिया, जो बहुजनहिताय बहुजन सुखाय था। इसे भारत की जनता ने स्वीकार किया और तब से अब तक वही संविधान कदम-कदम पर पारदर्शी शासन चलाने के लिए हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हम आज भी इस संविधान की भावना के अनुकूल देश की दशा और दिशा तय कर रहे हैं या नहीं? ऊपरी तौर पर हम यह सोचने के लिए विवश हैं कि सीमाओं को लांघ कर भारतीय राजनीति में जो उद्दंडता, बाहुबल, धनबल आए हैं, इससे साफ सुथरी राजनीति जनता से हर रोज कोसों दूर जा रही है। कुछ विचारकों का तो यह मानना है कि अब भारतीय राजनीति का कुछ धन बल वालों और कुख्यात अपराधियों ने अपहरण कर लिया है।



 राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि प्राय: सभी बड़े दलों में जघन्य अपराधियों की भरमार है। भारतीय राजनीति में ईमानदार और देश के प्रति सच्ची निष्ठा रखने वाले लोगों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। परिणाम यह है की आजादी का लाभ जो सबको मिलना चाहिए था, वह कुछ चाटुकार लोगों तक सीमित हो गया है। ये राजनीति के माहिर लोग अपने आसपास ऐसा चक्रव्यूह तैयार कर लेते हैं कि शासन का प्रत्येक अंग उनका गुलाम बन कर रह जाता है। वस्तुस्थिति तो यही है। प्रभावी सूचना तंत्र अब इतना सशक्त हो गया है कि ये लोग बड़े ही सहज ढंग से मीडिया के दुरुपयोग से रात को भी दिन कहकर भारतीय जनता को भ्रमित कर सकते हैं। सत्ता में बने रहने के लिए राजनीतिक दल ऐसे लुभावने नारे दे रहे हैं और रेवडिय़ां बांट रहे हैं कि जनता के बीच काफी लोग मुफ्तखोर हो गए हैं।


 इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में एक बहुत बड़े तबके में मेहनत करने में रुचि कम हो रही है और वे सरकार की मुफ्त की योजनाओं के लाभ की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस प्रवृत्ति ने राज्यों को आर्थिक दृष्टि से पंगु बना दिया है। सामाजिक सरोकारों की पूर्ति के लिए प्रयत्न हर राज्य को करना चाहिए, किन्तु जनता को निठल्ले बनाने वाले यह लोकलुभावन कार्यक्रम न तो सरकार को अपनाने चाहिए और न ही जनता को इसको प्रोत्साहित करना चाहिए कि लोग बिना काम के ही जिंदगी बसर करने की आदत बना लें।
 लेखिका एक स्वत्रंत पत्रकार ,मेरठ 


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