बेकाबू महंगाई का सितम झेलती जनता
- अनुज आचार्य
इन दिनों हरी सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं और महंगी सब्जियां आम लोगों की पहुंच से पार हो चुकी हैं। टमाटर के दाम ने तो सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। हिमाचल में जहां टमाटर 140 रुपए प्रति किलो तक बिक रहा है, वहीं हरा मटर 200 रुपए की दर से बिक रहा है। दूसरी सब्जियां भी 80-90 पार ही बिक रही हैं और सब्जी विक्रेताओं, आढ़तियों को कोई पूछने वाला नहीं है। आलू, प्याज, शिमला मिर्च सोने के भाव बिक रहे हैं। एक तरफ शादियों का सीजन चल रहा है, तो दूसरी तरफ त्योहारों के चलते लोगों की जेबें खूब ढीली हो रही हैं। सरकार द्वारा खाद्य पदार्थों के दामों और एमआरपी पर कोई ठोस नियंत्रण न होने के कारण एक तरफ देश में गरीबों की हालत दयनीय होती जा रही है तो वहीं अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भारत में हाल के वर्षों में खाद्यान्नों के दाम बहुत ज्यादा बढ़ चुके हैं।
ऊपर से, देश में रोजगार की स्थिति बेहद खराब है और लोगों की कमाई भी नहीं बढ़ रही है। इसलिए आम आदमी को पूरा आर्थिक परिदृश्य ही नकारात्मक नजर आ रहा है। हिमाचल प्रदेश के बाजारों में महंगाई बेलगाम होती जा रही है। ऐसे लगता है जैसे फल एवं सब्जियों के विक्रेताओं में नियम-कायदे और कानून का कोई खौफ नहीं है और वे मनमाने दामों पर सब्जियां और फल बेचकर मोटा मुनाफा कमाने में जुटे हुए हैं। ऊपर से तुर्रा यह है कि प्रशासनिक कार्रवाई, जुर्माने तथा दंड अथवा लाइसेंस कैंसिल होने का कोई डर न रहने के चलते शायद ही कोई सब्जी, फल विक्रेता अपनी दुकान में इनके दामों को प्रदर्शित करने वाला बोर्ड लगाने की जहमत उठाता होगा। त्योहारी सीजन के बीच में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक खुदरा मुद्रास्फीति सितंबर में बढक़र 5.49 प्रतिशत हो गई, जो पिछले महीने 3.65 प्रतिशत थी। वहीं सितंबर में थोक महंगाई बढक़र 1.84 फीसदी पर पहुंच गई है।


महंगाई बढऩे के पीछे खाद्य एवं सब्जियों की कीमतों में वृद्धि मुख्य वजह रही। रिटेल बाजार में खाद्य पदार्थों और सब्जियों के दाम चाहे कितने भी क्यों न बढ़ जाएं, लेकिन किसान वर्ग को इसका फायदा कभी भी नहीं मिलता है। इसके विपरीत जमाखोरों, स्टोरियों द्वारा जमकर खाद्य वस्तुओं की जमाखोरी की जाती है और बाजार में वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर महंगाई को बढ़ाकर चोखा मुनाफा कमाया जाता है। लिहाजा आप समझ सकते हैं कि बढ़ती महंगाई की सबसे ज्यादा मार गरीब एवं मध्यम वर्ग को झेलनी पड़ती है। आज संपन्न नागरिकों को भी चाहिए कि वे वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति से बचें और महंगाई को दूर करने में सरकार का सहयोग करें। पहले से ही कम वस्तुओं को बेकार और बर्बाद न करें, विशेषकर शादियों, घरेलू कार्यक्रमों और धार्मिक उत्सवों में अन्न और सब्जियों की बर्बादी न करें।

अधिकारियों से उम्मीद है कि वे खाद्य वस्तुओं, विशेषकर फल, सब्जियों की उपलब्धता पर नजर रखने के साथ-साथ उनके दामों को नियंत्रण में रखते हुए सब्जी विक्रेताओं को प्रतिदिन के भावों को लिखकर बोर्ड पर प्रदर्शित करने के लिए कहेंगे, ताकि गरीब एवं सामान्य जनता को उनके हाथों से लुटने से बचाया जा सके। इस बात से भी सभी भली-भांति परिचित ही हैं कि आम आदमी तक खाद्य सामग्री पहुंचने से पहले दलालों, बिचौलियों और आढ़तियों की जेबें गर्म हो चुकी होती हैं जबकि किसानों को कभी भी उनके उत्पादों के सही दाम नहीं मिलते हैं।
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रशासन को यह पता ही नहीं है कि बाजारों में सब्जियों के दामों और अन्य खाद्य वस्तुओं का क्या हाल है। आज अधिकारी वर्ग अपनी कुर्सियों तक सीमित होकर रह गए हैं। आज से 30-35 वर्ष पूर्व जब कभी भी महंगाई का जिन्न अपना सिर उठाता था तो विपक्षी दलों द्वारा जरूर धरना-प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन की खबरें देखने-सुनने को मिलती थीं। लेकिन अब जैसे राजनीतिक दलों को आम जनता को होने वाली परेशानियों से कोई लेना-देना ही नहीं है। मूल्य सूची तो शायद ही कोई दुकानदार लगाता होगा, बिल देना तो दूर की कौड़ी समझिए।
बाजारवाद की लूट में अधिकांश व्यापारियों की मौज लगी हुई है और वस्तुओं के मूल्यों पर सरकारी नियंत्रण कहीं नहीं दिखाई पड़ रहा है। आम ग्राहक सरेआम लुट रहा है। क्या आयकर विभाग ऐसे विक्रेताओं की कमाई तथा टैक्स देयता की भी जांच पड़ताल करेगा? प्रश्न यह भी उठता है कि जब देश में जीवनोपयोगी वस्तुओं की बहुलता है तो फिर मूल्यवृद्धि क्यों और किसान गरीब क्यों? यह सही है कि जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन वैश्विक सहयोग और कई अन्य उपायों से वस्तुओं की उपलब्धता में भी उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है, तो भी चीजें इतनी महंगी क्यों बिक रही हैं और महंगाई का बोलबाला क्यों है?


अच्छे मानसून और बेहतर पैदावार के बावजूद खाद्य वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कौन पैदा कर रहा है, क्यों सरकारें इन पर लगाम नहीं लगा पा रही हैं? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को भी तो अंतत: जनता जनार्दन की कृपा से ही सरकारें बनाने का सुफल मिलता है, तो फिर क्यों वे आम जनता के हितों को नजरअंदाज करते हैं? सरकार को चाहिए कि वह आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 और कालाबाजारी निवारण एवं आवश्यक वस्तु आपूर्ति रखरखाव अधिनियम 1980 के प्रावधानों को सख्ती से लागू करे। अंतत: सवाल उठता है कि क्या सरकार और अफसरशाही के पास इस लूटपाट को अंजाम देने वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ किसी प्रकार की कोई कार्रवाई करने का जीवट है?

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