वादों का हो शीघ्र निपटारा
इलमा अजीम
न्याय के इंतजार में कई-कई पीढ़ियां अदालतों के चक्कर काटती रह जाती हैं। देश में शीर्ष अदालत, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में मुकदमों का अंबार निश्चित रूप से न्यायिक व्यवस्था के लिये असहज स्थिति है। बताया जाता है कि देश में तीनों स्तरों पर करीब पांच करोड़ मामले लंबित हैं। निश्चित ही यह न्यायिक व्यवस्था के लिये एक गंभीर चुनौती है। जिसके बाबत देश के नीति-नियंताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए। निस्संदेह, भारत दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश है।
लेकिन इतनी बड़ी आबादी के अनुपात में पर्याप्त न्यायाधीशों व न्यायालयों की उपलब्धता नहीं है। निश्चित रूप से न्याय का मतलब न्याय मिलने जैसा होना चाहिए। न्याय समाज में महसूस भी होना चाहिए। देश में न्याय की प्रक्रिया सहज व सरल तथा आम आदमी की पहुंच वाली होनी चाहिए। राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं में न्यायिक प्रक्रिया की मांग लंबे समय से की जाती रही है। इस दिशा में कुछ प्रयास हुए भी हैं लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। जिससे तारीख पर तारीख का सिलसिला थम सके। जिसके लिये जरूरी है कि अदालती मामलों का तय समय सीमा में निपटारा किया जाना सुनिश्चित हो। उम्मीद की जा रही है कि हाल ही में लागू हुए तीन नये आपराधिक कानूनों के लागू होने के बाद स्थिति में सुधार हो सकेगा। केंद्र सरकार भी कहती रही है कि नये कानूनों का मकसद लोगों को सजा देने के बजाय न्याय दिलाने पर केंद्रित है।
विश्वास किया जाना चाहिए कि इन प्रयासों से मुकदमों के निस्तारण में गति आएगी। देश की जनता उम्मीद लगाए बैठी है कि दशकों से लंबित मामलों का शीघ्र निस्तारण हो। जिससे न्यायिक प्रक्रिया से हताश-निराश लोग समझौता करने को बाध्य न हों। विश्वास किया जाना चाहिए कि मुख्य न्यायाधीश की चिंता के बाद न्यायिक प्रक्रिया को सरल-सुगम बनाने के लिये अभिनव पहल हो सकेगी। जिससे आम लोगों की समय पर न्याय मिलने की आस पूरी हो सकेगी।
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