इलमा अजीम
पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बेटियों और महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर एक मार्मिक और अभूतपूर्व प्रतिक्रिया दी है। राष्ट्रपति ने अपनी मन:स्थिति बयां करते हुए अपनी निराशा, हताशा और भय का इजहार भी किया है। कल्पना की जा सकती है कि महिलाओं के खिलाफ बर्बर, पाशविक अपराधों ने राष्ट्रपति को कितना झकझोर दिया होगा कि उन्हें कहना पड़ा-‘बस, अब बहुत हो गया।’ एक राष्ट्र के तौर पर यह शर्मनाक और कलंकित स्थिति है कि राष्ट्रपति को लिखना पड़ा-‘किंडरगार्टन की बच्चियों के साथ भी दरिंदगी की जा रही है। आज देश गुस्से में है और मैं भी…।’ अब एक समाज के रूप में हम अपने आप से कुछ कठिन सवाल पूछें। राष्ट्रपति मुर्मू ने सवाल किया है कि 2012 में निर्भया कांड के बाद पूरा देश आंदोलित हो उठा था, लेकिन फिर लोगों ने यौन अपराधों को भुला दिया। क्या हमने यही सबक सीखा था? क्या हम ‘सामूहिक स्मृतिलोप’ के शिकार हैं? यह दुखद है और घिनौना भी है।’ किसी भी सभ्य समाज में बेटियों, महिलाओं के खिलाफ ऐसे जघन्य अपराध स्वीकार्य नहीं हैं, बर्दाश्त नहीं किए जा सकते।
हमें ईमानदार, निष्पक्ष आत्म-निरीक्षण की जरूरत है। अब हम न केवल इतिहास का सामना करें, बल्कि अपनी आत्मा के भीतर भी झांकें और इन अपराधों के कारणों की जांच करें। कोलकाता में एक तरफ प्रदर्शन हो रहे थे, दूसरी तरफ अपराधी भी घूम रहे थे। महिलाओं को कमतर आंकना भी घृणित मानसिकता है। कोलकाता कांड ने राष्ट्रपति मुर्मू के मानस को झकझोरा होगा, लेकिन उन्होंने देश भर में बढ़ते बलात्कारों और हत्याओं के प्रति अपनी चिंता और सरोकार जताया है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और विपक्ष के अन्य राजनीतिक दलों को इस पत्र से चिढऩा नहीं चाहिए अथवा ‘राजनीतिक पत्र’ नहीं आंकना चाहिए। हम अब एक परिपक्व गणतंत्र हैं, लिहाजा राष्ट्रपति के ऐसे सार्वजनिक कथन पर विचार करना चाहिए। चूंकि भारत के राष्ट्रपति ने पत्र लिख कर देश के हालात पर निराशा और पीड़ा जताई है, जाहिर है कि शेष विश्व भी यह पत्र पढ़ेगा और एकबारगी सोचेगा कि क्या भारत बलात्कारियों का देश है? भारत का अपमान होगा, उसकी छवि पर कालिख पुतेगी, क्योंकि राष्ट्रपति ने ही क्षोभ जताया है। हालात इस पराकाष्ठा तक पहुंच चुके हैं कि राष्ट्रपति को कहना पड़ा है-‘बस, अब बहुत हो गया।’ राष्ट्रपति के इस कथन की अलग-अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं।
बहरहाल राष्ट्रपति ने अपने पत्र के जरिए कई बातें कही हैं। यदि हम वाकई सभ्य और शिक्षित, शालीन समाज हैं और हमारी आंखों में अब भी पानी शेष है, तो कमोबेश राष्ट्रपति के पत्र का कुछ पालन करना चाहिए।(02-09-24)
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