महिला सुरक्षा और विकलांग व्यवस्था
- अंजलि कश्यप
कभी दिल्ली की निर्भया, कभी उन्नाव कभी हैदराबाद तो अब कोलकाता साल दर साल बस जगह के नाम बदले हैं, हालात अब भी वही हैं। 2012 में भी हम मोमबत्ती पकड़े सड़कों पर थे और आज 2024 में भी हम मोमबत्ती पकड़े सड़क पर ही हैं। क्या महिलाओं का वजूद बस इतना सा रह गया है कि उनके नाम पर मोमबत्ती घुमा दी जाये। ये तो बस चंद घटनाएं हैं जो इस तरह से उजागर हो जाती हैं कि मोमबत्तियां पकड़ी जाये वरना दर्जनों मामले हैं ऐसे जो सामने ही नहीं आते हैं। ये किस तरह का वीभत्स समाज बनता जा रहा है।
यहां ना नब्बे साल की बूढ़ी औरत सुरक्षित है ना ही नौ महीने की छोटी बच्ची सुरक्षित है। स्कूल में छोटी बच्चियों के साथ यौन शोषण से लेकर, गली- मोहल्ले, सड़क, दुकान, वर्कप्लेस हर जगह पर भेड़िये घात लगाये बैठे हैं। इस दौर में महिलाएं बस भोग की वस्तु बनती जा रही हैं।
कल कहीं लिखा था किसी समाचार में कि एक सेक्स वर्कर ने कहा हम तो हैं ना हमारे पास आओ जो सड़कों पर बाहर घूम रहीं हैं उन्हें छोड़ दो। ये वाक्य अपने आप में दर्द की कहानी बयान करता है। लेकिन बतौर समाज क्या किया जा रहा है। मोमबत्ती पकड़ना, आक्रोशित होना, श्रध्दांजलि देना, थोड़ी बहुत नारेबाज़ी, हल्की फुलकी पत्थरबाजी, न्यूज़ चैनल पर दो दिन की डीबेट और फिर क़िस्सा ख़त्म पैसा हज़म... सब भूल जाएंगे।
सालों से यही होता आ रहा है और अभी भी यही हो रहा है लेकिन इसे कभी तो बदलना होगा, आख़िर कब तक दिये की लौ में न्याय की आस लगाये देश की बेटियां सुरक्षा की भीख मांगती रहेंगी? शायद तब तक जब तक देश की प्रशासन व्यवस्था राजनीति और स्वार्थ से ऊपर उठकर सही मायनों में नारी सुरक्षा के मद में कड़े कदम उठाए।
मशहूर उर्दू शायर जौन एलिया साहब कह गये हैं- “कौन समझता है सिर्फ़ बातों से सबको एक हादसा ज़रूरी है” अब हादसे तो हर घंटे हो रहे हैं हर दिन हो रहे हैं, मैं यहां लिख रही हूं शायद अभी भी किसी के साथ कुछ ग़लत हो रहा होगा लेकिन सवाल अब भी वही है ये मूक प्रशासन को और कितने हादसे चाहिए समझने के लिए कि ऐसे कुकृत्य करने वाले मनुष्य नहीं दानव हैं और उन्हें ऐसी सजा दी जाये कि दुबारा ऐसे काम करने से पहले व्यक्ति की रूह कांप जाए।
लेकिन देश का दुर्भाग्य तो देखिए कि जहां हम इस विकलांग व्यवस्था से न्याय की उम्मीद लगाये हैं उसी व्यवस्था के भीतर कितने मामलों में तो एफआईआर तक नहीं लिखे जाते या एफआईआर लिखने में जानबूझ कर देरी की जाती है। न्याय तो तब मिलेगा जब प्रक्रिया होगी यहां कई जगहों पर तो इस प्रक्रिया में जाने तक से रोक दिया जाता है और ऐसे मामले एक नहीं कई हैं। ऐसे में अब बतौर लड़की ऐसी विकलांग शासन व्यवस्था भी भयभीत करने लगी है। अपने ही समाज में असुरक्षा का भाव आ गया है और सच मानिए क्षुब्ध हूं इस असुरक्षित समाज का हिस्सा बनकर।
(स्वतंत्र लेखिका, गुरु आनंद नगर, ईस्ट दिल्ली)
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